Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 96
________________ 90 जनविद्या पद्मश्री कहती है—निर्मल गुणों और महान् गोत्रवाली कुलकन्याओं का निश्चय से एक ही पति होता है, लोक में एक ही जननी होती है, एक ही तात होता है और एक ही देव होता है-वीतराग जिन ।......"यदि प्रियतम हम लोगों से परिणय न कर वैरागी होते हैं तो हों किन्तु यदि किसी प्रकार विवाह घट जाये और हम लोग उनकी दृष्टि में चढ़ जायें तो वे हम लोगों के चंचलनेत्रों के वशीभूत होकर आजीवन हमारे प्राणवल्लभ बने रहेंगे 41 । अन्य कुमारियां भी कहती हैं-परिणय कर लेने पर उन्हें व्रतप्रधान तपोवन से तो दूर ही समझिये। वे अपनी सौन्दर्यगत विशेषताओं का भी इस स्थल पर वर्णन करती हैं। विवाह हो जाने के बाद वासगृह में जंबूकुमार के साथ जब ये होती हैं तो कुमार को अपने हाव-भाव व सुन्दर-सुडौल अंगों के प्रदर्शन से वशीभूत करना चाहती हैं, किन्तु जब सफलता नहीं मिलती तब चुभनेवाले वाक्यों का प्रयोग करने लग जाती हैं और अपनी कार्यसिद्धि के लिए युक्तियुक्त उदाहरणात्मक कथानक सुनाने लगती हैं। किन्तु फिर भी जब वे कुमार को दृढ़चित्त देखती हैं तो पद्मश्री लज्जापूर्वक हंसती हुई अपनी सपत्नियों से कहती है-हे सुन्दरी ! भुजाओं को सिकोड़े पागल सरीखी कंत की यह कोई अपूर्व ही भंगिमा है । क्या कहीं नपुंसक को भी मदन के बाण लगते हैं ? क्या अंधे को नृत्योत्सव अच्छा लग सकता है ? क्या कोई बहरा संगीत सुन सकता है ? इस अविवेकी कंत को तो भूत लग गया है जो तपस्या के क्लेश से स्वर्ग चाहता है ।43 अपने पति को दीक्षा लेने की इच्छा से विरक्त करने के लिए वे दृष्टान्त-रूप में कई कथानक सुनाती हैं जिनका प्रत्युत्तर जम्बूकुमार भी कथानकों को सुनाकर ही देता है। इस प्रकार हमें यहा चारों ही नारी-पात्रों की चतुराई, प्रतिपादनदक्षता, तर्कक्षमता और सौन्दर्यसम्पन्नता का बोध हो जाता है किन्तु यह कतई नहीं भूलना चाहिये कि पति को रिझानेरूप कार्यसिद्धि के लिए उन्होंने यह रुख अपनाया है। वस्तुतः वे धर्मरुचिशून्य व विषय-भोग-लम्पट नहीं हैं, क्योंकि उनके पति कुमार जब दीक्षा लेने के विचार पर दृढ़ रह कर प्रवजित हो जाते हैं तो वे भी उनके ही श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण कर विषयसुख-वांछारहित तपश्चरण अंगीकार करके 4 आदर्श प्रस्तुत करती हैं । मालतीलता—यह केरलपुरी के राजा मृगांक की पत्नी तथा सहस्रशृंग पर्वत पर रहनेवाले विद्याधर गगनगति की बहिन है । मालतीलता की बेटी ही विलासमती है ।45 विलासमती-यह मृगांक की पुत्री व गगनगति नामक विद्याधर की भाञ्जी है । अत्यन्त रूपवती होने के कारण इसके शृंगार का कारीगर अनंग ही माना गया है। महर्षि के ज्ञानोपदेश व आदेश से मृगांक ने यह कन्या राजा श्रेणिक (कन्ननृपति) को देना निश्चित कर लिया है46 । हंस द्वीप का रत्नशेखर विद्याधर इस कन्या को चाहता है । साम-दाम और भेद से उसे प्राप्त करने में असमर्थ होने पर वह दण्डक्रिया अर्थात् युद्ध प्रारंभ कर देता है ।47. यही वह रत्नशेखर है जिसे पराजित करने में कवि अकेले जंबूकुमार को ही समर्थ बताकर उनके वीरोचित गुण का प्रदर्शन करता है । काव्य में विलासमती का अपना कोई अनूठा वैशिष्ट्य रहा होगा ऐसा ज्ञात होता है ।

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