Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 115
________________ जैन विद्या 109 वीरहो पय पणविवि मंदमइ सविणयगिर जंपइ वीरु कइ । जो परगुणगहणकज्जे जियइ सिविणे वि न दोसु लेसु नियइ । सो सुयणु सहावें सच्छमइ गुणदोसपरिक्खहि नारुहइ । गुण झपइ पयडइ दोसु छलु अन्भासें जाणंतो वि खलु । परगुणपरिहारपरंपरए प्रोसरउ हयासु सो वि परए। करजोडिवि विउसहो अणुसरमि अन्भत्थण मज्जत्थहो करमि । अवसद्दु नियवि मा मणि धरउ परिउंछिवि सुंदरु पउ करउ । कव्वु जे कइ विरयइ एक्कगुणु अण्णेक्क पउंजिव्वइ निउण । एक्कु जे पाहाणु हेमु जणइ अण्णेक्कु परिक्खा तासु कुरणइ । सो विरलु को वि जो उहयमइ एवं विहो वि पुणु हवइ जइ। सुइसुहयरु पढइ फुरंतु मरणे कव्वत्थु निवेसइ नियवयणे । रसभावहिं रंजियविउसयणु सो मुयवि सयंभु अण्णु कवणु। सो चेय गव्वु जइ नउ करइ तहो कज्जे पवणु तिहयणु धरइ । _ 1.2 वीरहो (वीर) 6/1 पय (पय) 2/2 पणविवि (पणव) संकृ मंदमइ [(मंद) वि(मइ) 1/1] सविणयगिरु [(सविणय) वि-(गिर) 2/1] जंपइ (जप) व 3/1 सक वीरु (वीर) 1/1 कइ (कइ) 1/11 जो (ज) 1/1 सवि परगुणगहणकज्जे [(पर) वि-(गुण)-(गहण)-(कज्ज')7/1] जियइ (जिय) व 3/1 अक सिविणे (सिविण) 7/1 वि (अ) = भी न (अ) = नहीं दोसु (दोस) 2/1 लेसु (लेस) 2/1 वि नियइ (निय) व 3/1 सक। + कभी-कभी सप्तमी का प्रयोग तृतीया अर्थ में पाया जाता है । (हे. प्रा. व्या., 3-135) । सो (त) 1/1 सवि सुयणु (सुयण) 1/1 सहावें' (सहाव) 3/1 सच्छमइ [(सच्छ) वि-(मइ) 1/1] गुणदोसपरिक्खहि [(गुण)-(दोस)-(परिवख) 7/1] नारुहइ [(न)+अ (रुहइ)] न (अ) = नहीं अरुहइ (अरुह) व 3/1 अक । + क्रिया विशेषण अव्यय की तरह प्रयुक्त । गुण (गुण) 2/2 झंपइ (झप) व 3/1 सक पयडइ (पयड) व 3/1 सक दोसु (दोस 2/2 छलु (छल) 2/2 अन्भासे (प्रभास) 3/1 जाणंतो (जाण) व 1/1 वि (अ) = भी खलु (खल) 1/1 । परगुणपरिहारपरंपरए [ (पर) वि-(गुण)-(परिहार)-(परंपरा) 3/1 ] प्रोसर (प्रोसर)*6/1 उ (अ) निश्चय ही हयासु (हयास) 1/1 सो (त) 1/1 सवि वि (अ)=भी परए (पर) व 3/1 सक । + कभी कभी षष्ठी का प्रयोग सप्तमी अर्थ में पाया जाता है। (हे. प्रा. व्या., 3-134)

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