Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जनविद्या
107
पणमामि जिणेसर वड्ढमाणु किउ जेण तित्यु जगे घड्ढमाणु । ससुरासुरकयजम्माहिसेउ
संसारसमुद्दुत्तारसेउ । चलणग्गै दोलियमेरुधीर निम्नासियसक्कासंकवीर । नहकंतिजित्तससिसूरधामु परियाणियलोयालोयधामु । जयसासणु विहरियसमवसरणु चउगइदुहपीडियजीवसरणु । झाणग्गिभूइकयकम्मबंधु
भव्वयणकमलकंदोट्टबंधु । वरकमलालिगियचारुमुत्ति रयणत्तयसाहियपरममुत्ति । तइलोयसामि-सममित्तसत्तु वयणसुहासासियसयलसतु। 1.1.3-10
पणमामि (पणम) व 1/1 सक जिणेसर (जिणेसर) 2/1 वड्ढमाणु (वड्दमाण) 2/1 किउ (कि-+किन-किउ) भूक 1/1 जेण (ज) 3/1 स तित्थु (तित्थ) 1/1 जगे (जग) 7/1 वड्ढमाणु (वड्ढ) वक 1/11
ससुरासुरकयजम्माहिसेउ [(ससुर) + (असुर) + (कय)+ (जम्म)-(अहिसेउ)] [(ससुर) वि - (असुर) - (कय) भूक अनि-(जम्म)-(अहिसेअ) 1/1] संसारसमुदुत्तारसेउ [(संसार)+ (समुद्द)+(उत्तार)+(सेउ)] [(संसार)-(समुद्द)-(उत्तार)-(सेप्र) 1/1]
चलणग्गै [(चलण)+ (अग्गे)] [(चलण)-(अग्ग) 2/1] दोलियमेरुधोरु [(दोल, दोल+दोलिय) भूक-(मेरु)-(धीरु)1/1 वि) निन्नासियसक्कासंकवीर [(निन्नास-निन्नासिय) भूकृ-(सङ्क+सक्का')-(संक-(वीर) 1/2] । + समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर हस्व के स्यान पर दीर्घ हो जाया करते हैं (हेम प्राकृत
व्याकरण 1-4)। + जिन धातुओं में आदि स्वर दीर्घ होता है, उन धातुओं से प्रेरणार्थक भाव प्रकट करने के लिए कभी-कभी किसी भी प्रकार के प्रेरणार्थक प्रत्यय को नहीं जोड़ा जाता है।
(हेम प्राकृत व्याकरण, 3-150) । नहकंतिजित्तससिसूरधामु [(नह)-(कंति)-(जित्त) भूकृ अनि-(ससि)-(सूर)-(धाम) 1/1] परियारिणयलोयालोयधाम [(परि-याण-+परि-याणिय) भूकृ-(लोयालोय)-(धामु) 1/1]
जयसासणु [(जय)-(सासण) 1/1] विहरियसमवसरणु [(विहर-विहरिय) भूक(समवसरण) 1/1] चउगइदुहपीडियजीवसरणु [(चउ)-(गइ)-(दुह)-(पीड+पीडिय) भूकृ(जीव)-(सरण) 1/1]।
झाणग्गिभूइकयकम्मबंधु [(झाण)+(अग्गि)+(भूइ)+ (कय)+(कम्म)+(बंधु)] [(झाण)-(अग्गि)-(भूइ)-(कय) भूक अनि-(कम्म)-(बंध) 1/1] भव्वयणकमल कंदोट्टबंधु [(भव्व)-(यण)-(कमल)-(कंदोट्ट)-(बंधु) 1/1] ।
(कंदोट्ट = नील कमल, कमलबंधु = सूर्य)
वरकमलालिगियचारुमुत्ति [(वर) + (कमला)-+(प्रालिंगिय) + (चारु)+(मुत्ति)] [(वर)-(कमला)-(प्रालिंग-प्रालिगिय) भूकृ-(चारु)-(मुत्ति) 1/1] रयणत्तयसाहियपरममुत्ति [(रयणत्तय)-(साह-+साहिय) भूकृ-(परम) वि-(मुत्ति) 1/11] ।

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