Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 112
________________ 106 जनविद्या (जिनके द्वारा) ध्यानरूपी अग्नि में कामसुख होम दिया गया (है), (तथा) जिनके ज्ञान में (सम्पूर्ण) लोक (इस तरह से) स्पष्ट दिखाई देता है, जैसे आकाश में एक तारा, वे महावीर जयवन्त हों। जयउ जिणो पासट्ठियनमिविणमि किवाण फुरिय पडिबिबो। गहियण्णरूवजुयलो व तिजयमणुसासिउं रिसहो ॥ 1.6 जयउ (जय) 3/1 अक जिणो (जिण) 1/1 पासट्टियनमिविणमिकिवाणफुरियपडिविवो [(पास)-(ट्ठ-+ट्ठिय) भूकृ-(नमि)-(विणमि)-(किवाण)-(फुरफुरिय) भूक-(पडिबिंब) 1/1] गहियण्णरूवजुयलो [(गहिय)+(अण्ण)+(रूव)+(जुयलो)] [(गह+गहिय) भूकृ-(अण्ण) वि-(रूव)-(जुयल) 1/1] व्व (अ)=मानो तिजयमणुसासि [(ति)--(जयं)+ (अणुसासिउं)] [(ति) वि-(जय) 2/1) अणुसासिउं (अणुसास) हेकृ रिसहो (रिसह) 1/11 (a) ऋषभ जिन जयवंत हों (जिनके) पिछले भाग में स्थित नमि और विणमि की (चमकदार) तलवारों में (उनका) प्रतिबिंब (इस तरह से) दृष्टिगोचर हुआ (है), मानो (उनके द्वारा) अन्य दो रूप तीन जगत् को (मूल्यात्मक) शिक्षण प्रदान करने के लिए धारण किये गये (हैं)। जयउ सिरिपासणाहो रेहइ जस्संगनीलिमाभिन्नो । फणिणो तडिछद्दियनवघणो व्व मरिणगम्भिणो फरणकडप्पो ॥ 1.7 जयउ (जय) विधि 3/1 अक सिरिपासणाहो [(सिरि)-(पासणाह) 1/1] रेहइ (रेह) व 3/1 अक जस्संगनीलिमाभिन्नो [(जस्स)+ (अंग) + (नीलिमा)+ (भिन्नो)] जस्स (ज)6/1 स [(अंग)-(नीलिमा)-(भिन्न) 1/1 वि] फणिणो (फणि) 6/1 तडिछद्दियनवघणो [(तडि)-(छद्दिय) भूकृ अनि-(नव) वि-(घण) 1/1] व्व (अ) = की तरह मणिगम्भिणो [(मणि)-(गम्भिण) 1/1 वि] फणकडप्पो [(फरण)-(कडप्प) 1/1]। (वे) श्रीपार्श्वनाथ जयवन्त हों (जिनके ऊपर स्थित) सर्प का मणिसहित फणसमूह (उनके) शरीर की नीलिमा से भिन्न (दिखाई देता है), (जो) (नीले आकाश में) बिजली से चमके हुए बादल-समूह की तरह सुन्दर प्रतीत होता है। पंच वि पणवेप्पिणु परमगुरु मोक्खमहागइगामिहि । पारंभिय पच्छिमकेवलिहि जिह कह जंबूसामिहि ॥ 1.1.1-2 ___पंच (पंच) 2/2 वि वि (अ) = संख्यावाचक शब्दों के पश्चात् प्रयुक्त होने पर 'समस्ता' का अर्थ होता है। पणवेप्पिणु (पणव) संकृ परमगुरु [(परम) वि-(गुरु) 2/2] मोक्खमहागइगामिहि [(मोक्ख)-(महागइ)-(गामि) 6/1 वि] पारंभिय (पारंभ) व कर्म 1/1 पच्छिमकेवलिहि [(पच्छिम) वि-(केवलि) 6/1 वि] जिह (अ) = परम्परा अनुसार कह (कहा) 1/1 जंबूसामिहि (जंबूसामि) 6/1। सभी पांचों परम गुरुओं (अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु) को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके समतारूपी महास्थिति को प्राप्त करनेवाले अन्तिम केवली, जम्बूस्वामी की परम्परा के अनुसार कथा प्रारम्भ की जाती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158