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जंबूसामिचरिउ के वैराग्य-प्रसंग
-सुश्री प्रीति जैन
साहित्य की प्रत्येक विधा का अपना एक कथ्य होता है जिसे सर्वजनहिताय संप्रेषण करने का प्रयास ही उसके सृजन का उद्देश्य होता है। धार्मिक साहित्य इसका अपवाद नहीं है ।
धार्मिक ग्रंथों में उस विशिष्ट धर्म की परम्परामों, मान्यताओं व लक्ष्य का समुचित उल्लेख होता है जिस धर्म के वे ग्रंथ होते हैं। उनमें अपने श्रेय व प्रेय का विशद वर्णन होता है जिसके आलोक में ही उसके सिद्धान्तों, नियमों, रीति नीति प्रादि का आभास होता है ।
• ये सब साहित्यिक प्राधार/उद्देश्य जैन धार्मिक साहित्य में भी सुतरां दृष्टिगत हैं ।
जैनधर्म प्रात्मवादी है और आत्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता एवं स्वावलम्बन ही इसका चरम लक्ष्य है अतः प्राणिमात्र को स्वतन्त्रता व स्वावलम्बन की शिक्षा देमा इसका उद्देश्य है। स्वतन्त्रता व स्वावलम्बन पाने के लिए पात्मशोधन की प्रक्रिया आवश्यक है। इसलिए हम पाते हैं कि जैनधर्म व उसके धार्मिक साहित्य का मूल मन्तव्य है आत्मशोधन की प्रक्रिया का विवेचन/वर्णन/निरूपण । इसकी अभिव्यक्ति की विधा पृथक्-पृथक् हो सकती है पर उद्देश्य एक ही होता है।
जैन धार्मिक साहित्य को हम चार विधाओं में विभक्त करते हैं - 1. जैन इतिहास-(उन महापुरुषों की चरित-कथाएं जिन्होंने आत्मशोधन कर लक्ष्य
प्राप्त कर लिया है या प्राप्त करने वाले हैं)