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जनता
भूमिका पर 'वैराग्य' उपजना सहज/स्वाभाविक था अतः मुनि के इन शब्दों से वह प्रभावित हो गया और तुरन्त दैगम्बरी दीक्षा ले ली।
यह 'वैराग्य' स्वतः व परतः दोनों माध्यमों से उद्भूत है। भवदेव का वैराग्य प्रसंग
__ भवदेव भवदत्त का अनुज है । भवदत्त अपनी दीक्षा के बारह वर्ष पश्चात् विहार करते हुए जब पुनः अग्रहार ग्राम में लौटे तब भवदेव का विवाह सम्पन्न हो रहा था ।
परिस्थितिवश भवदेव को अपने विवाह के दिन ही दीक्षा धारण करनी पड़ी। वह मन से इसके लिए तैयार नहीं था पर संकोचवश अस्वीकार नहीं कर सका और यह सोचकर दीक्षित हो गया कि बाद में वापस गृहस्थ बन जाऊंगा । किन्तु ऐसा सम्भव न हो सका।
वे मुनिवेश में रहे किन्तु मन में निरन्तर घर व पत्नी-विषयक रागरंजित विचार चलते रहते थे । विहार करते हुए बारह वर्ष बाद वे अग्रहार गांव में पाए । अपनी पत्नी से मिलने को उत्सुक भवदेव चुपचाप नगर की मोर बढ़ चले । मन प्रिया-मिलन के सपने संजो रहा था किन्तु साथ ही अपनी पत्नी के चरित्र के प्रति शंकालु भी था। वहां उन्हें एक नवनिर्मित चैत्यधर दिखाई दिया। वहीं उन्होंने एक तपस्विनी स्त्री से अपने घर व पत्नी के बारे में पूछा। वह कृशकाया तपस्विनी भवदेव की पत्नी नागवसू ही थी जिसने पति के बिना पूर्वसूचना के अचानक चले जाने पर भी धैर्य व धर्म का त्याग नहीं किया था और अपना तन-मन-धन सर्वस्व धर्म के लिए समर्पित कर दिया था । वह तुरन्त मुनिवेशधारी अपने पति को पहचान गई और सोचने लगी-मोह ! ये त्यागीवेशधारी होकर भी व्रतों से डिगे हुए हैं ! उनके राग को देखकर वह बहुत दुःखी हुई
और विचार करने लगी-इनकी दुर्बुद्धि/दुर्भावना को बदलना होगा । उसने अपना परिचय नहीं दिया और मुनि भवदेव से बोली-हे त्रिभुवनतिलक ! आप धन्य हैं जिन्होंने सुख का घर जिनदर्शन पाया है और इस युवावस्था में इन्द्रियों का दमन किया है। परिगलित अर्थात वृद्धावस्था में तो सभी की विषयाभिलाषाएं उपशान्त हो जाती हैं (पर आपने तो युवावस्था में ही ये सब त्याग दी हैं), ऐसा आपके अलावा कौन कर सकता है ? .
रत्न देकर (बदले में) कांच कौन लेना है ? पीतल के लिए स्वर्ण कौन बेचता है ? स्वर्ग व मोक्षसुख को छोड़कर रौरव नरक में कौन जाता है ? कौन ऋषि अपने स्वाध्याय की हानि करता है ?
वह पुनः बोली-और आप जिस नागवसू के बारे में पूछ रहे हैं उसके सौंदर्य का हाल भी सुनिये-उसका सिर नारियल के समान मुंडा हुआ है। मुख लारयुक्त है, वाणी घरघर करने लगी है । नयन जल बुबुदे के समान हो गये हैं (अर्थात् जल से भरे रहते हैं), तालु अपना स्थान छोड़ चुका है । चिबुक, ललाट, कपोल और त्वचा प्रादि वायु से पाहत होकर रण-रण करने लगे हैं। देह मांस और रक्त से शून्य, चर्म ढका हुआ हड्डियों का ढांचा मात्र (रह गया) है । हृदय को निःशल्य (विकल्परहित) करो। रूप-सौंदर्य के लिए आपके हृदय में शल्य बना रहा, आपने (इस वेश में भी) परलोक की साधना नहीं की, व्यर्थ समय गंवाया है।