________________
जंबूसामिचरिउ के नारी-पात्र
--श्री श्रीयांशकुमार सिंघई
संस्कृत में काव्य-रचना की अर्हतावाले अस्खलितस्वर कवि वीर अपने पिता के आदेश से प्राकृत अर्थात् तत्कालीन लोकभाषा अपभ्रंश में जंबूसामिचरिउ की रचना विक्रमाब्द 1076-1077 में पूर्ण करते हैं। मेरा मानना है कि अब तक उपलब्ध जम्बूस्वामी विषयक सम्पूर्ण साहित्य में अपभ्रंश कवि वीरु की यह रचना केवल बेजोड़ ही नहीं प्रतिनिधि भी है। कवि ने अपने काव्यनायक जम्बूस्वामी के पूर्व भवों का उल्लेख कर उनके सर्वांगीण जीवन को जिस कलाचातुरी के साथ प्रस्तुत किया है उससे पाठक स्वयं शृंगार और वीर रस की अनुभूतियों से प्राप्लावित होने लगता है किन्तु परिपाक में वैराग्य को ही हृदयंगम करने की प्रेरणा पा लेता है । वस्तुतः यह कवि की विचित्र कलाचातुरी ही है। "शृंगार और वीर रस के धरातल को मजबूत बनाकर वैराग्य को श्रेयस्कर व सार्थक बताना" कोई साधारण पात नहीं है अपितु कवि की असाधारण सूझबूझवाली परिपक्व प्रतिभा का प्रद्योत है।
जैन शास्त्रों में अभिमंचित मनीषा के अनुसार इस काव्य में नायक जम्बूस्वामी प्रवहमान अवसर्पिणी में भरतक्षेत्र से मोक्ष जानेवालों में अन्तिम महामना हैं । इनका लोकजीवन राग पर विराग की विजय का अनूठा अलख जगाता है और आज भी भोगासक्त विषयानुरागी मानव-समुदाय को प्राभ्युदयिक पुरुषार्थ की सार्थक प्रेरणा प्रदान करता है, उन्हें सम्यक् सुखशांति का सच्चा रास्ता प्रदर्शित कर देता है।
साहित्य जगत् की हर रचना अपनी प्रसूति के समय की विविध परिस्थितियों को अपने गर्भ में समाविष्ट रखती है। वह रचना ही क्या जो तत्कालीन समाज का दर्पण न बन पाये । जम्बूसामिचरिउ साहित्य-सागर की वह जीवन्त ज्योति है जिसे हम अथाह जलराशि के