Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 59
________________ जैविद्या तउ मुहहो जारिणयसयवत्तभन्ति, प्राति निहालहि भमरपंति । इय भणिय जं जि सदवक्कभग्ग, परियत्तवि दइयहो कंठि लग्ग । 4.17.6 सुरतावस्था के मनोरम चित्र जलक्रीड़ा के प्रसंग में अंकित हुए हैं । रतितृप्ता रमणी की कटिवस्र संभालने और कम्पनशील नितम्ब को स्थिर करने की सामान्य चेष्टानों को तो वीर कवि ने निःसंकोच चित्रित किया ही, उसने भोग्या नारी के प्रांगिक सौन्दर्य को भी सूक्ष्म दृष्टि से परखा-नखक्षत से अरुण हुआ सद्यःभोग्या का वर्तुल स्तन ऐसा भासित हो रहा था मानो मदनहस्ति के कुम्भस्थल पर अंकुश मारा गया हो नहरारुणु तह थरणवटु भाइ, अंकुसिउ कामकरिकुभु नाइ। 4.19.15 स्वकीया नायिका के जो भी सजीव और यथार्थ प्ररणय-चित्र वीर कवि ने प्रस्तुत किये वे यौवनानन्द से पूरित युवावस्था के प्रति कवि की आस्था के प्रतीक हैं । उन्मुक्त रमणचित्रों को निःसंकोच प्रस्तुत करने पर भी वीर कवि मर्यादित प्रणय के ही हिमायती हैं। छत्ते के मधु को निःशेष कर देने वाली मधुमविखयों से सर्वहारी वेश्याप्रेम की तुलना कवि की प्रणय-दृष्टि का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। जम्बूस्वामी की प्रमुखकथा में वियोग शृंगार का कोई भी प्रसंग कवि को नहीं मिला। जम्बूस्वामी को ब्याही गई चारों श्रेष्ठि-कन्याओं को उसे कामासक्त बनाने की एक ही रात (सुहागरात) शर्त्तानुसार उपलब्ध हुई थी । जम्बूस्वामी के पूर्व भवदेव के कामोद्दीपन में पुरुषविरह के मर्मस्पर्शी चित्र ‘सौन्दरनंद' के नंद और मेघदूत के यक्ष का स्मरण कराते हैं । गृहस्थ जीवन के अग्रज किन्तु अब विरक्त मुनि की प्रेरणा से भवदेव मुनिसंघ में सम्मिलित तो हो गए किन्तु अतृप्त भोगेच्छा को पूर्णतः नियंत्रित नहीं कर सके । उनके तम-मन में बसा भार्या का रूप-सौन्दर्य बलात् ठोकी हुई कील के समान दर्द करने लगा। अपनी प्रियतमा की नीलकमल जैसी कोमल श्यामलांगी ललित एवं पतली देहयष्टि की विह्वलता उसके स्मृतिपटल पर छा गई। अपने दर्द को भुलाकर प्रिय-पीड़ा की अनूभूति करानेवाले संवेदना चित्र संस्कृत साहित्य में भले ही मिल जायं हिन्दी साहित्य में तो कहीं दिखाई नहीं देते । विरही भवदेव की असली कसक है -अपनी रूप-ऋद्धि से मन को हरण करनेवाली हे मुग्धे ! शोक है कि तू मेरे बिन काम से पीड़ित हुई होगी नीलकमलदलकोमलिए सामलिए, नवजोवरणलीलाललिए पत्तलिए। रूवरिद्धिमणहारिणिए मारिणिए, हा मई विरणु मयणे नडिए मुद्धडिए। 2.15.3-4 अतृप्त सुरतक्रीड़ा के मिठास की कल्पना भवदेव को घर लौटने के लिए विवश करने लगी। उसका निरन्तर स्मरण उसके पैरों में तीव्र गति भरने लगा। कामातुर व्यक्ति का इतना उत्तेजक चित्र अनुपम है

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