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जैन विद्या
संयमभव (23 वर्ष), यशोभद्र (50 वर्ष), संभूतिविजय (8 वर्ष) और भद्रबाहु (14 वर्ष) की गणना पंचश्रुतकेवलियों में करती है। इस परम्परा के विषय में और अधिक कहना अप्रासंगिक होगा । यहाँ हमारा मात्र इतना ही अभिधेय है कि जम्बूस्वामी तक जैन परम्परा अविच्छिन्न रही है । यह उनके व्यक्तित्व का निदर्शक है ।
अर्धमागधी आगमों में जम्बूस्वामी के व्यक्तित्व को स्पष्ट करनेवाले कतिपय उद्धरण अवश्य मिलते हैं पर उनका क्रमबद्ध जीवन-चरित संघदासगणि (5-6वीं शती) द्वारा लिखित वसुदेव हिण्डी में ही उपलब्ध होता है । वही वृत्तान्त कुछ नामों में हेर-फेर के साथ गुणभद्र के उत्तरपुराण [(897 ई.) (76.1-213)] और पुष्पदंत के महापुराण (वि. सं. 1076) में मिलता है । इसके बाद डॉ. विमलप्रकाश जैन ने जम्बूसा मिचरिउ के अपने गम्भीर संगदकीय वक्तव्य में गुणपाल के जंबूचरियं को रखा है और वीर कवि के जंबूसामिचरिउ को उससे प्रभावित माना है परन्तु यह अधिक तर्कसंगत नहीं लगता। कारण यह कि एक तो जंबचरियं का रचनाकाल निःसंदिग्ध नहीं है और यदि सारे प्रमाणों के साथ उसका समय निश्चित किया भी जाए तो विक्रम की 11वीं शताब्दी से पूर्व का वह सिद्ध नहीं होता। ऐसी अवस्था में दोनों प्राचार्य एकदम समकालीन सिद्ध होते हैं। फिर उनमें किसका किस पर प्रभाव है यह सिद्ध करना कठिन हो जाता है । मात्र क्लिष्ट शैली के कारण उसे पूर्वतर माना जाए यह
गले नहीं उतरती । संस्कृत, प्राकृत साहित्य में अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं जो उत्तरकालीन हैं पर शैली की दृष्टि से जटिल हैं। फिर जंबूसामिचरिउ की शैली कोई बिल्कुल सरल भी नहीं है। उसमें वैदर्भी और लाटी के साथ ही गौड़ी और पांचाली रीति का भी उपयोग यथास्थान किया गया है इसलिए हमारी तो अवधारणा है कि जंबूसामिचरियं जंबूसामिचरिउ का आदर्श आधारग्रन्थ नहीं रहा है। प्राधारग्रन्थ देखना ही है तो यह कहा जा सकता है कि महाकवि ने उत्तरपुराण की कथा को ही अपनी प्रतिभा से पल्लवित किया है। जो कुछ भी अंतकथाएं आई हैं वे लौकिक पाख्यान हैं और उनका समावेश कवि ने प्रतिभापूर्वक मूलकथा में कर दिया है। गुणपाल ने भी उन कथाओं का जो उपयोग किया है उसे या तो वीर कवि का अनुकरण कहा जा सकता है या उसे काकतालीय न्याय के आधार पर समानता मात्र माना जा सकता है । लोकाख्यानों का उपयोग प्राचीन कवि अपनी रचनाओं में भरपूर करते ही रहे हैं । मात्र उनको ही देखकर एक दूसरे से प्रभावित होने की बात अधिक युक्त नहीं । हां, यह अवश्य कहा जा सकता है कि गुणपाल की काव्य-प्रतिभा अपेक्षाकृत अधिक रही है । वीर कवि ने कथाप्रवाह को सुगठित, सुव्यवस्थित और सुरुचिकर बनाने के लिए मूलकथा में जो भी परिवर्तनपरिवर्द्धन किया है वह उनकी सूक्ष्म दृष्टि कही जा सकती है। वे भवभूति, भारवि और पष्पदंत के समान उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकारों की एक लंबी श्रृंखला का ताना-बाना करते दिखाई नही देते । यह शायद कवि की अपनी सूझ-बूझ का फल है। अन्यथा कथाप्रवाह की गति मंद हो जाती और पाठक एक बोझिलता का अनुभव करने लगता, समूची कथा पढ़ने के बाद यह निश्चित है कि पाठक कहीं भी ऊब नहीं पाता।
___ जम्बूस्वामी की चरित-विषयक सामग्री जैनागमों में अधिक नहीं मिलती। तब प्रश्न उठता है कि यह कथानक वसुदेवहिण्डी में कहां से आया ? डॉ. विमलप्रकाश जैन ने