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जैन विद्या
जंबूसामिचरिउ का बड़ा सुन्दर सम्पादन किया है। उन्होंने बड़ी विद्वत्ता के साथ एक विस्तृत प्रस्तावना भी लिखी है । उसमें इस प्रश्न का उत्तर देते समय उन्होंने अश्वघोष के सौंदरानंद काव्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। इन दोनों के कथानकों में निःसंदेह काफी समानता मिलती है । पर इसके साथ ही यदि हम तीर्थंकर महावीर के चरित तथा थेरगाथा में आये मालुंक्यपुत्र आदि अनेक स्थविरों के जीवन-प्रसंगों की ओर दृष्टिपात करें तो जंबूस्वामी की कथानक रचना में और भी कारण जुड़ सकते हैं ।
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जम्बूस्वामी का कथानक अन्तर्कथाओं के महाजाल से सन्नद्ध है । ग्यारह संधियों में रचा गया यह महाकाव्य लगभग पचास अन्तर्कथाओंों से गुंथा हुआ है । उसमें अधिकांश अन्तर्कथाएं ऐसी हैं जिन्हें अलग कर देने पर भी कथाप्रवाह में कोई अन्तर नहीं पड़ता । अधिकांश स्थानों पर तो ये अन्तर्कथाएं पैबन्द जैसी अलग ही जुड़ी हुई दिखाई देती हैं। ऐसा लगता है जैसे काव्यप्रतिभा को दिखाने और ग्रन्थ परिमाण को बढ़ाने की दृष्टि से उन्हें संयोजित किया गया हो । अन्तर्कथाओं की योजना की पृष्ठभूमि में कथानायक के चरित्र को अधिकाधिक प्रभावक बनाने और उसकी गुणात्मक विशेषताओं को स्पष्ट करने का उद्देश्य अवश्य सन्निहित रहता है। पर जम्बूसामिचरिउ में उनका उपयोग इस रूप में अधिक दिखाई नहीं देता। हां, एक विशेषता अवश्य मानी जा सकती है कि महाकवि प्रखर धार्मिक उपदेष्टा के रूप में हमारे समक्ष प्राता हुआ दिखाई नहीं देता इसलिए कथानक लोककथाओं के माध्यम से क्षित्र गति से बढ़ता चला
जाता है।
का एक
अमानवीय तत्त्वों के आधार पर लोकचिन्तन को आंदोलित करने का लोककथात्रों जो प्रमुख उद्देश्य रहता है वह प्रस्तुत जम्बूसामिचरिउ की अंतर्कथाओं में परिस्फुटित हुआ है । उदाहररणतः - वसंतऋतु में कामक्रीड़ा (4.13 - 19 ), वधुनों की कामचेष्टाएं ( 8.16 ) वेश्यवाट ( 9.11-13 ), प्रति प्राकृतिकता ( पंचम संधि), उपदेशात्मकता ( दशम् संधि ), पूर्वजन्म संस्कार, विविध प्रदेशों की महिलायों का सौंदर्य वर्णन (4.5), लोकजीवन - चित्ररण (5.9), अटवी - वर्णन ( 5.8), वीररस (4.12, 5.14, 6.4, 10.5-14), विविध वाद्य संगीत (5.6 ), कौतूहल ( 5.5, 7.4) आदि । इनके समावेश से लोकाख्यानों में सरसता और गंभीरतां आ गयी है ।
लोकोक्तियों के प्रयोग ने कथाप्रवाह को और भी प्रभावक बना दिया हैसौ योजन र वैद्य और सिर पर सांप-
जोयणसविज्जु सप्पु सिरए । 5.4.13
जानते हुए भी हालाहल विष वेल को मुंह में डालना -- जाणंत विमा मुहि छुवहि हालाहल विसवेल्लि । 5.13.5 आदि जैसी लोकोक्तियां ग्रंथ में यथास्थान प्रयुक्त हुई हैं ।
महाकवि वीर की दृष्टि में कवि वह है जिसके मतिरूपी फलक पर समग्र शब्दरूपी कंदुक नाना अर्थों में प्रवृत्त होती हुई क्रीड़ा करती है ( 1.6 ) । कवि की इस परिभाषा