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जनविद्या
प्रभसियउ हंसहि गमणु तुझु, कलयंठिहिं कोमललविउ बुझु । पडिगाहिउ कमलाहि चलणल्हासु, तरुपल्लवेहि करयलविलासु । सिक्खिउ वेलिहिं भूवंकुडत्तु,
सीसत्तभाउ सव्व वि पवत्तु । 4.17.19-21 आश्रय और आलंबन के अन्योन्याश्रित होने के कारण लगभग एक जैसे ही भावों और मानसिक अनुभावों की अनुभूतियां नायिका और नायक को होती रहती हैं । 'जम्बूसामिचरिउ' में सौन्दर्यवती युवतियां पौरुषमयी देहयष्टि और उसकी कान्ति पर मुग्ध हुई हैं । जम्बूस्वामी की देह-यष्ठि तेज से दीप्तमान है । उनकी जंघायें, चक्राकार नितम्ब तथा लम्बी भूजाएं क्रमशः सुवर्ण स्तम्भ, सिंह और गज-सुण्ड के समान हैं। उनके ऊंचे कंधे जहाँ नायिका में शौर्यप्रेरित आकर्षण उत्पन्न करते हैं वहां उनके आरक्त अधर और सुन्दर कपोल उपभोग्य लालसा भी (5.12.12-20) । नायक के मनोरम रूप पर आसक्त पूर्वानुरागिनी युवतियों की मानसिकता बड़ी विभ्रमपूर्ण हो जाती है। प्रेमसिक्त हृदय की इस अंतरंगता में वीर कवि की बड़ी पैठ है। जम्बूस्वामी की रूपासक्ति से पुर की कन्यायें बड़ी भ्रमित हो गईं-किसी ने कंचुक को बाहुओं में पहन लिया, कोई गले में हार नहीं डाल सकी, कोई नेत्रों में अधूरा ही अंजन लगा पाई। एक कन्या कंकरण को हाथ में पहनती हुई और दूसरी केशपाश को लहराती हुई भी अपने मण्डन-कर्म का ध्यान ही भूल गई। दोनों कामोतेजनावश कांपती हुई स्फटिकमय तोरण का आलिंगन करने लगीं। विभ्रम, आवेग, कम्प आदि संचारी भावों से सहवर्तित स्थायी भाव 'रति' के अनूठे चित्र हैं
बाहुवलयनिवेसिय कंचुयाए, कंठालु न पारिय देवि ताए । उत्तालियाए गलिन किउ हारु, प्रद्धंजिउ एक्कु जि नयणु फारु । एक्कु जि वलउल्लउ करि करंति, विलुलियकवरी भरथरहरंति ।
असमत्तमंडणुम्भायभग्ग,
फलिहुल्लय तोरणखंभे लग्ग ॥ 4.11 8-12 यौवनोन्माद में झूमते प्रेमी-प्रेमिकाओं के मिलन के अवसर 'उपवन-विहार' और 'जलक्रीड़ा' में सुलभ हुए हैं। अपनी प्रिया को एकान्त में पाकर प्रियतम क्या छेड़-छाड़ नहीं करते ? प्रेमोन्मत्त युगलों द्वारा मुख, कपोल और अधरों के पारस्परिक चुम्बन, आलिंगन और नखच्छेद के कई लुभावने प्रणय-चित्र 'जम्बूसामिचरिउ' में उपलब्ध हैं। प्रणय कुपिता सुन्दरी प्रियतम से किये गये मान को क्षणभर भी तो स्थिर नहीं रख पाती। उसका फेरा हुअा मुह प्रियतम की प्रशंसा पाकर उसके सन्मुख हो दोनों को आलिंगनपाश में बांध देता है।