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जैन विद्या
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हाथी पर विराजमान वीर जंबूस्वामी के युद्धकौशल के प्रोजप्रद चित्र 'जंबूसामिचरिउ' में अंकित हुए हैं (6.19.16-2) । हिन्दी कवि केशवदास से पूर्व वीर कवि ने ही नायक के धनुष संधान का चामत्कारिक प्रभाव अभिव्यक्त किया है। जम्बूकुमार ने ज्यों ही चाप को प्रास्फालित किया लोक निनादित हो उठो तथा रत्नाकर चीत्कार कर उठा। दुर्धर्ष योद्धा के हथियार-संचालन के इतने सर्वव्यापी परिणाम वीर कवि की वाणी से ही प्रस्फुटित हुए हैं । जम्बूस्वामी के धनुष से छूटे हुए बाण के शब्द से देवताओं के विमान स्वर्ग से ढुलककर आकाश में लटकने लगे, सूर्य और चंद्र द्रुतगति से काँपने लगे और जलधि झुलसकर ऊपर उठने लगे। पर्वतों के शिखर कड़ककर टूटने लगे तथा प्रासाद विघटित होकर फूटने लगे तब प्रतिद्वन्द्वी भटों के प्राणों की तो प्रोकात ही क्या थी ? अनेक भटों के प्राण बाण के शब्द के साथ ही निकल भागे
तें सर्वे भडहं पडंति पाण, लंबंति ढलक्किय सुरविमाण । कंपति दवक्किय सूरचंद, उठेंति झलक्किय जलहिमंद । तुति कडक्किय सिहरिसिहर, फुट्टति धवलहर जाय विहुर ।
1.8.9-12
नायक के शौर्य-प्रदर्शन एवं हथियार संचालन की त्वरा और कौशल की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त 'जम्बूसामिचरिउ' में युद्ध के सजीव चित्र भी दृष्टिगोचर होते हैं। मृगांक और रत्नशेखर की चतुरंगिणी सेनाओं की भिड़न्त भीषणतम है। दोनों ओर से टकराती हुई तलवारों, भिड़ते हुए फरसों तथा बाण-वर्षा ने प्रलयंकारी श्याम मेघों का दृश्य उपस्थित कर दिया है।
वाहंति हणंति वाह कुमरा, खरखणखणंत करवालकरा । विधंति जोह जलहरसरिसा, वावल्लभल्ल कणियवरिसा । फारक्क परोप्पर प्रोवडिया, कोंताउह कोतकरहिं भिडिया।
6.6.6-8
वीरगति प्राप्त योद्धानों के अलग-थलग बिखरे हुए क्षत-विक्षत जर्जरावयव, विच्छिन्न गर्दन, कुचले हुए पर, चूर-चूर हुआ उरस्थल युद्ध की भीषणता प्रकट कर देते हैं --
करिकरकलयगलु पयदलियनलु, उर - सिर - सरीरसवचूरिउ । न मुरणइ पिउ कवणु सममरणमणु, रणे सुहडकलत्तु विसूरिउ ।
6.8.11-12