________________
जैन विद्या
योग से मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार कर्म भी पुद्गल निर्मित हैं । जो कुछ प्रतिभासित होता है, वही जीव है । वह दर्पण में मुख के प्रतिबिम्ब के समान प्रभासित होता है । चूंकि उसमें अध्यवसाय रूप परिणमन नहीं होता इसलिए चार्वाक् की दृष्टि में परलोक, स्वर्ग, मोक्ष प्रादि नहीं होते ।
71
जम्बूस्वामी के माध्यम से महाकवि ने चार्वाक् के इस मत का खण्डन किया है । उन्होंने कहा-पंचेन्द्रियों एवं मन से उत्पन्न सविकल्पक ज्ञान का उपादान कारण यदि पंचभूत है तो फिर सभी जीवों के मूर्त कारण से उत्पन्न मूर्तज्ञान की परिणति एक जैसी क्यों नहीं होती ? इसी तरह अचेतन पृथिव्यादि भूतों से उत्पन्न अचेतन शरीरादिक के समान ज्ञान भी अचेतन होना चाहिए । पर तथ्य यह है कि ज्ञान एक चेतन तत्त्व है और ज्ञप्ति - जानना इसकी ही क्रिया है । धर्म-अधर्म किसी भी स्थिति में एक से नहीं हो सकते । सुख-दुःख वस्तुतः उन्हीं की अभिव्यक्ति है ( 10.4-5 ) ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चूंकि जम्बूसामिचरिउ मूलतः चरित्रकाव्य है, अन्तर्कथाओं से भरा हुआ है, इसीलिए दार्शनिक विचारधारा की विस्तृत प्रस्तुति में महाकवि की कोई विशेष रुचि नहीं रही है। उन्हें कदाचित् पाठक का विशेष ध्यान था । अनावश्यक लम्बे दार्शनिक संवादों में वे उसे उलझाना नहीं चाहते थे । मात्र प्रसंगों में दर्शन का स्पर्श करते हुए ही कथा को आगे बढ़ाने में उन्हें प्रौचित्य दिखा है । इसलिए जम्बूसामिचरिउ की शैली प्रभावक भी सिद्ध हुई है ।