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जैन विद्या
अपितु परम्परा का विकास है। अपभ्रंश छंद के बारे में एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वह व्यक्ति नहीं जाति से सम्बन्ध रखती है । सामान्यतया अपभ्रंश सुविज्ञों ने दो प्रकार के अपभ्रंश छंद स्वीकार किये हैं
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(क) प्रबन्धकाव्य परम्परा के छंद
(ख) चारण अथवा मुक्त परम्परा के छंद ।
अपभ्रंश कवि छंद के प्रयोग को लेकर बड़े सजग रहे हैं । लोकभाषा की गतिशीलता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक भी था । यही कारण है कि उसमें दोनों परम्परात्रों के छंद मिलते हैं। श्री अल्सफोर्ड ने अपभ्रंश छंद के दो भेद किये हैं—गरणप्रधान प्रौर मात्राप्रधान । मात्राप्रधान के पांच भेद किये हैं
1. चार पाद का लयात्मक छंद
2. दोहा प्रकार के छंद
3. केवल लयवाले छंद
4. मिश्रित छंद
5. घत्ता के आकार के छंद ।
इसी प्रकार प्रयोग की दृष्टि से भी भेदों की कल्पना की जा सकती है
(क) मुक्तक रचनाओं में प्रयुक्त होनेवाले छंद
(ख) कड़वक रचना में प्रयुक्त छंद
(ग) कड़वक के आदि अन्त में प्रयुक्त छंद ।
अपभ्रंश के छंद प्रायः संगीत प्रधान हैं, वे ताल-गेय हैं 15 अपभ्रंश छंदों में 'यति' प्रायः संगीतात्मक होती है । लोकभाषा के छंदों का अपभ्रंश के छंदों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है ।
अपभ्रंश के श्रेष्ठ कविकोविद वीर विरचित 'जंबूसामिचरिउ' नामक चरितात्मक महाकाव्य में मात्रिक और वर्णिक दोनों प्रकार के छंदों का प्रयोग परिलक्षित है लेकिन अधिकता मात्रिक छंदों में पज्झट्टिका, घत्ता, दुवई, दोहा, गाथा, वस्तुखंडयं और वणिक वृत्तों में स्रग्विणी, शिखरिणी और भुजंगप्रयात इस चरितात्मक महाकाव्य में प्रमुख रूप से प्रयुक्त हैं ।" गाथाओं की भाषा निस्संदेह प्राकृत से प्रभावित है । डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री ने तेईस छंदोंकरिमकरभुजा, दीपक, पारणक, पद्धडिया, अलिल्लह, सिंहावलोक, त्रोटनक, पादाकुलक, उर्वशी, सारीय, त्रग्विणी, मदनावतार, त्रिपदी शंखनारी, सामानिका, भुजंगप्रयात, दिनमरिण, गाथा, उद्गाथा, दोहा, रत्नमालिका, मणिशेखर, मालागाहो, दण्डक - का उल्लेख किया है 18 डॉ. विमलप्रकाश जैन ने 'जंबूसा मिचरिउ' ग्रंथ के सम्पादन में प्रयुक्त छंदों का मात्रा तथा वर्णों की संख्यानुसार पहले समवृत्त फिर विषमवृत्त क्रम से विस्तारपूर्वक विश्लेषण किया है | 9
'जंबूसामिचरिउ' महाकाव्य प्रमुख रूप से सोलह मात्रिक अलिल्लह एवं पज्झटिका छंदों में निबद्ध है । तदुपरान्त पन्द्रह मात्रिक पारणक अथवा विसिलोथ छंद का स्थान है ।