Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 70
________________ 64 ( 22 ) मालगाहो (40 +30+26) - नहकुलिस दलियमा यंगतुंग कुंभयलगलियकी लाललितमुत्ताहलोह । विष्फुरियकविलकेसर कलावधोलंत कंधरूलद्देसा । जंति ताम सीहा जाम न सरहं पलोयंति ॥ ( 24 ) वस्तु ( 15+25+26+ दोहा) ताम राएं दिष्णु प्रत्थाणु सिंहास विहि मि ठिउ एक्कु पासि कामिणिजणावलि । पज्ज लियम रिणमउड सिर पुणु निविट्ठ मंडलियमंडलि । पुणु सामंत महंत थिय सेणिउ इयराउत्त । भडथड थक्क विरोयकर नरनाणा विहधुत्त । ( 23 ) रत्नमालिका ( चतुष्पदी) (14+6, 14+6 प्रत्येक पद के अंत में सगण ) नीलकमलदलको मलिए सामलिए नवजोव्वणलीलाललित पत्तलिए । रूव रिद्धिमरणहारिणिए मारिणिए हा मई विणु मयरों नडिए मुद्धडिए ॥ 2.15.3-4 - जैन विद्या 1. जैन हिन्दी काव्य में छंदोयोजना, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', पृष्ठ 8 । 2. हिन्दी साहित्य कोष, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा प्रादि, पृष्ठ 291 । 3. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्रकुमार, पृष्ठ 231 । 7.4.1-3 5.1.7-11 कड़वकों के आदि और अन्त में प्रयुक्त छंदों ध्रुवक और घत्ता का प्रयोग अपने नाना प्रकारों के साथ कवि-काव्य में दृष्टिगत है । इस प्रकार 'जंबूसामिचरिउ' में कुल छब्बीस छन्दों का व्यवहार हुआ है | गाथा छंद अपने पाँच भेदों के साथ और ध्रुवक और घत्ता नाना प्रकारों के साथ व्यवहृत हैं । वस्तुत: 'जंबूसामिचरिउ' में महाकाव्यानुकूल छंदों का प्रयोग हुआ है । छंदों की नवीनता और विविधता से काव्य की गरिमा का श्रीवर्द्धन हुआ है। छंद की आह्लादनक्षमता से कवि श्री वीर की कविता- गागर में भाव-सम्पदा का असीम सागर तरंगायित हो उठा है। 8. तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, खण्ड 4, पृष्ठ 131 । 9. जंबूसामिचरिउ, सम्पादक - डॉ. विमलप्रकाश जैन, पृष्ठ 101-107 तक । — 4. अपभ्रंश स्टेडेन, 1937, पृष्ठ 46 | 5. जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन, श्री रामसिंह तोमर, प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ, पृष्ठ 19 6. भारतीय साहित्य कोष, सम्पा० डॉ. नगेन्द्र, पृष्ठ 422 7. अपभ्रंश साहित्य, डॉ. हरिवंश कोछड, पृष्ठ 157

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