________________
जैन विद्या
कोई विरोध नहीं । परन्तु व्यवहारनय से प्रत्येक शरीर जीव सर्वथा अनात्म स्वरूप कर्मजनित शरीर से सुख-दुःखात्मक उपाधि को उसी प्रकार सहन करता है जिस प्रकार जंगम ( सजीव ) बलीवर्दादिक प्राणी जंगम (निर्जीव) शकटादि वस्तु को ढोता है । कवि ने जीव और कर्म का सम्बन्ध स्पष्ट करने के लिए कुछ और भी उदाहरण दिये हैं। उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार रवि-किरणों के सम्पर्क से सूर्यकान्तमणि अग्नियुक्त दिखाई देने लगती है, उसी प्रकार प्रचेतन पुद्गलात्मक कर्म परमाणुत्रों से प्रादुर्भूत शरीर भी सचेतन आत्मा के सम्पर्क से चेतन व क्रियावान् दिखाई देने लगता है । आत्मा के भावकर्म से पुद्गल स्कन्ध से इन्द्रियां बनती हैं, बढ़ती है एवं मोहनीय कर्म के सामर्थ्य से नाना विकल्पात्मक इन्द्रियसमूह उत्पन्न होता है । इस प्रकार जो भी जीवनिमित्तक पर्याय है उसे ही व्यवहार में जीव कहा जाता है । कर्म से बंधा यही जीव भिन्न-भिन्न पर्याय ग्रहण करता है, चतुर्गतियों का अनुभव करता है और यही जीव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र के माध्यम से कर्म को, मोहजाल को नष्ट कर डालता है एवं मोक्ष पा लेता है । कर्म का निःशेष नाश ही मोक्ष है ।
1
68
1
श्रत्थिति निरंजणु जीउ संतु, सन्भावें दंसणनारणवंतु । संवेई यप्पपरपरमतत्तु, निरवहिसण्णाणपमाणमेत्तु जाणंतु वि परुन परेण मिलिउ, श्रायासपमुहद वह न खलिउ । नीसेसनिरत्थोवाही सहइ, जंगमण अंजगमु जेम वहइ । संते गणे नवभवसमत्थु पावइ श्रवयासु धराइत्थु । दिवसयर किरणकारणुलहंतु, रविकंतु व दीसइ श्रग्गिवंतु। तिह जोग्गकम्मपरमाणुखंधु, परिवढियश्रहमिय- बुद्धिबंधु । जीवेण निमित्तें मोहथामु, सवियप्पु वियंभई करणगामु । इय जाव जीव नइमित्तियो वि, ववहारें भण्णई जीउ सो वि । संसारनिबघणु तेण जणिउ, तं नासु निरामउ मोक्खु भणिउ । घत्ता - उप्पज्जइखिज्जइ गुरु-लहु किज्जइ नरयपमुहगइ प्रणुहवइ । कम्मासयवारणु भावियकारण सो च्चिय मोहजालु खवइ ।
2.1
यह समूचा वर्णन आगमानुसार है । भगवती सूत्र ( 20.2 ) में जीव के 12 पर्यायार्थक शब्द मिलते हैं जिनमें से वीर कवि ने मात्र जीव शब्द का उपयोग किया है। "निरंजणु " शब्द भी जीव के लिए आया है पर भगवती सूत्र में उसका उल्लेख नहीं है और न ही किसी अन्य आगम ग्रन्थ में उसका उल्लेख दिखा । लगता है, इस शब्द का प्रयोग अपभ्रंशकाल में - प्रारम्भ हुआ है । समराइच्चकहा, परमात्मसार प्रादि ग्रन्थों में वह बहुलता से आया है । दसवीं शताब्दी तक इसका प्रचार अधिक हो गया था। वहीं से यह हिन्दी साहित्य में चल पड़ा | हिन्दी साहित्य के आदिकालीन और मध्यकालीन साहित्य में यह शब्द अपभ्रंश साहित्य
ही है।
स्वभावतः निरंजन जीव पुद्गल कर्मों से प्रावृत्त होकर संसार में संसरण करता रहता है, चतुर्गतियों में भटकता रहता है ( 22 ) । महाकवि वीर ने संसार अवस्था का चित्रण करते हुए कहा है कि वह अवस्था ऐसी है जिसमें मनुष्य का चंचल मन चौरस्ते के दीपक के समान