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जैन विद्या
धर्म का स्वरूप
धार्मिक प्राचार्यों के समक्ष प्राथमिक समस्या रही है धर्म की परिभाषा। स्वभावतः यह परिभाषा ऐसी हो जो सार्वभौमिकता लिए हुए हो और यथावश्यक गुणों से ओतप्रोत हो । साधारणतः धर्म के साथ कई भावनायें, रीतिरिवाज तथा कर्मकाण्ड जुड़े रहते हैं पर उन्हें धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्म तो वस्तुतः अान्तरिक विशुद्ध भावना से संबद्ध है जिसमें वैयक्तिकता और सार्वभौमिकता क्षीर-जल वत् घुली हुई रहती है। विश्वास धर्म का प्राण अवश्य है पर उसे सम्यक् ज्ञान, भावना और आचरण पर आधारित होना चाहिए। यदि इनमें से किसी एक बिन्द पर विशेष बल दिया गया तो निश्चित ही धर्मान्धता और धार्मिक उन्माद के साथ ही असदाचरण का प्रवेश जीवन के सुरम्य प्रांगण में हो जाता है। इसलिए धर्म भावनात्मक, ज्ञानात्मक और क्रियात्मक इन तीनों तत्त्वों का समन्वित रूप होना चाहिए। हरिभद्रसूरि ने भी ललितविस्तरा में धर्म को इन्हीं त्रिकोणों से समझाया है ।
जैनाचार्यों द्वारा निर्धारित धर्म की परिभाषानों का यदि विश्लेषण किया जाय तो उन्हें हम तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-आध्यात्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिकसामाजिक । धर्म की आध्यात्मिक परिभाषा वैयक्तिक विशुद्धि पर अधिक जोर देती है जिसमें रागादि भाव से निवृत्ति हो, मिथ्यात्व से मुक्ति हो और मोहक्षय के फलस्वरूप प्रात्मा के स्वाभाविक परिणामों की अभिव्यक्ति हो । मोहक्खोहविहिणो परिणामो अप्पणो हि समो धम्मो (भाव-प्राभृत 81), धर्मः श्रुतचारित्रात्मको जीवस्यात्मपरिणामः कर्मक्षयकारणम् (सूत्रकृतांग, शीलांकाचार्यवृत्ति, 2.5) जैसी परिभाषाएं इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं । ये परिभाषाएं व्यक्ति के आत्मोन्मुखी प्रवृत्ति की ओर इंगित करती हैं । धर्म का यह एक पक्ष है।
जैनाचार्यों ने धर्म के दूसरे पक्ष को भी गहनता से समझा है। उनकी दृष्टि में व्यक्ति के साथ ही समाज भी अनुस्यूत है । अतः धर्म को सामाजिकता की सीमा में कसने के लिए उन्होंने उसे और व्यापक बनाया और कहा कि धर्म वह है जो अहिंसामय हो, दयामूलक हो और संयमभित हो । धम्मोदयाविशुद्धो (बोध. 25), अहिंसादिलक्षणो धर्मः (तत्वार्थवार्तिक, 6.13.5) धम्मो मंगलमुक्किटें अहिंसा संजमो तवो (दसवेयालिय, 1.1) प्रादि परिभाषाएं इस वर्ग में आती हैं । इस परिभाषा में व्यक्ति की अपेक्षा समाज प्रमुख हो जाता है।
धर्म की तृतीय परिभाषा में व्यक्ति और समाज दोनों समाहित हो जाते हैं । उसमें सम्यक्दर्शन, सम्य ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय के परिपालन को धर्म माना गया हैरयणत्तमं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो (कार्तिकेय. 478)। व्यक्ति और समाज की सारी गतिविधियों का मूल्यांकन रत्नत्रय की परिधि में हो जाता है। जीवन की यथार्थ व्याख्या और लक्ष्य प्रतिष्ठा इसी में संघटित हो जाती है।
धर्म की ये तीनों परिभाषाएँ वस्तुतः विशेष अन्तर लिये हुए नहीं हैं। वे सभी परस्पर संबद्ध हैं । यही कारण है कि जैनाचार्यों ने इन तीनों का उपयोग अपने ग्रन्थों में किया है । महाकवि वीर ने धर्म को प्रागम से जोड़कर कहा कि अहिंसा धर्म का स्वरूप है और