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जैन विद्या
है । अपभ्रन्श के जैन चरितकाव्यों की भांति ही उसके जीवन की परिसमाप्ति भी विरक्ति में होती है । कवि ने श्रोता-वक्ता शैली, कथा की आर्ष-परम्परा वही जानी-मानी राजा श्रेणिक और गौतम गणधर से प्रारम्भ की है । जम्बूस्वामी का चरित्र ही केन्द्रीय चरित्र है, शेष पात्र एवं घटनाएं उसी के परिप्रेक्ष्य में नियोजित हैं। कवि ने अनेक साहित्यिक शैलियों और वर्णनों को प्रस्तुत किया है, जिससे उनके चरितकाव्य का कथानक अस्वाभाविक हो उठा है। इसमें अन्य विशेषताएँ अपभ्रन्श परम्परा की हैं। नौ रसों से उद्वेलित कथा का प्रशमन शान्त रस में होता है।
कथानक
मंगलाचरण के पश्चात् कवि सज्जन-दुर्जन-स्मरण करता हैं। वह अपने से पूर्वकाल के कवियों का स्मरण करता हुआ अपनी अल्पज्ञता को व्यक्त करता है । पुनः कवि ने मगधदेश और राजगृह का अत्यन्त सुन्दर काव्य-शैली में चित्रोपम वर्णन किया है । परंपरा के अनुरूप मगध के राजा श्रेणिक और उसकी रानियों का वर्णन है । नगर के समीप उपवन में इन्द्ररचित भगवान् महावीर के समवशरण में पहुंचकर श्रेणिक जिन भगवान् की स्तुति करते हैं।
श्रेणिक के प्रश्नों का उत्तर वर्द्धमान देते है, तभी आकाशमार्ग से एक तेजपुज विद्युन्माली आता है। राजा उसके पूर्वजन्म के विषय में पूछते हैं तब जिनदेव उसके पूर्वजन्म की कथा सुनाते हैं । मगध देश के वर्धमान नामक ग्राम में एक गुणवान् ब्राह्मण तथा ब्राह्मणी रहते थे। उनके दो पुत्र हुए भवदत्त और भवदेव । जब वे क्रमशः 18 और 12 वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहान्त हो गया और उनकी मां सती हो गई । भवदत्त विरक्त हो दिगम्बर मुनि बन गये और 12 वर्ष तपस्या करने के बाद एक दिन संघ के साथ वे अपने गांव के पास गये । दूसरा भाई विवाह की तैयारी में लगा था किंतु अपने भाई के समझाने पर उनके प्राग्रह को न टाल सका और संघ में दीक्षित हो 12 वर्ष तक इधर-उधर भ्रमण किया। एक दिन वह ग्राम के निकट गया तो वह पुनः विषय-भोग में निरत होना चाहता था। नागवसु ने उसे प्रबोध दिया। दोनों भाई अनेक जन्म-परम्पराओं में भ्रमण करते हुए तप करते हुए मरणानन्तर स्वर्ग को जाते हैं।
स्वर्ग से च्युत होकर भवदत्त का जन्म पुडरी किनी नगरी में वज्रदन्त राजा की रानी यशोधना के पुत्र के रूप में हुआ। उसका नाम सागरचन्द रखा गया। वीताशोक नामक नगरी के चक्रवर्ती राजा महापद्म एवं उनकी रानी वनमाला के यहां भवदेव ने शिवकुमार के रूप में जन्म लिया। सागरचन्द अपने पूर्वजन्म के मुनिसंस्कार का स्मरण कर विरक्त होतपश्चर्या में लीन हो गया। शिवकुमार 105 राजकन्यानों से परिणय कर भोग-विलास का जीवन बिताने लगा । एक बार सागरचन्द वीताशोक नगरी में गया। वहां उसे मुनिरूप में देख शिवकुमार को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो पाया। उसमें वैराग्य भाव जागृत हो गये और उसने घरबार छोड़ना चाहा किंतु पिता के समझाने पर घर में ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया । तरुणीजनों के साथ रहते हुए भी वह विरक्त सा रहता था। मरने के पश्चात् वह विद्युन्माली देव हुमा । सागरचन्द भी सुरलोक में इन्द्र के समान देव हुआ। जिनवर वर्धमान