Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 36
________________ 30 जनविद्या जहां केवल सतही तौर पर एकाधिक आयाम जोड़ने के कौशल पर मुग्ध होने का व्यवसाय है, गर्वोवित्तयाँ तो वहां ही सुनाई पड़ती हैं -- नाहीं नाहीं करे, थोरो मांगे सब वैन कहै, मंगन को देखि पट देत बार-बार है। जिनके मिलत भली प्रापति की घटी होति, . _सदा सुभ जन-मन भावै निरधार है। मांगी ह रहत विलसत अवनी के मध्य, कन-कन जौरे, दान पाठपरवार है। सेनापति वचन की रचना विचारि देखो, दाता और सूम दौऊ कीन्हें इकसार है। ___ यह कारीगरी की दर्प-दीप्ति है. अनुभूति सागर की वीचि संकुलता नहीं । “वीर' कवि की रचना में भी कारीगरी है लेकिन प्रान्तरिक गहराई की। संश्लिष्ट भाषाओं में श्रेणी विभाजन से कम सरोकार होता है। उनमें भाषा के मौखिक अनुतान संबंधी रूप भी कम प्रभावशाली होते हैं । रूपिम अपने संबंधों में पूर्ण होते हैं। वियोगात्मक भाषा में सृजन की बलवती उत्प्रेरणा से पद-वाक्य के प्रकार्य से जुड़ जाते हैं और कभी वाक्य शब्द के प्रकार्य तक उतर पाते हैं । इस प्रकार उच्च कक्षान्तर प्लुति और निम्न कक्षान्तर प्लूति के साथ क्रम परिवर्तन के संयोजन के रूप भी प्रमुख हो जाते हैं। सजनात्मक भाषा में "चयन" का भी अपना महत्त्व होता है। मानक भाषा के घिसे-पिटे शब्द बोलीगत सद्य ऊष्मायुक्त शब्दों के लिए स्थान खाली कर देते हैं । अलंकार भाव के संपुट में एकत्र होकर बिम्ब बन जाते हैं और रंगों से बंधकर चित्र । कभी-कभी समूची एक ही शब्द में दीप्त होने लगती है । इसके साथ विन्यासिम लोच रचना को कालातीत बनाए रखता है और अथं के अतिरिक्त आयाम अनुभूति की अकूल प्रकाश छवि का निर्माण कर देते हैं। भाषा विचार. भी है और विचार भाषा । इसमें संस्कृति का नया-पुराना इतिहास समाहित रहता है और उसके सहारे हम आगे की टोह लेते हैं, इस अर्थ में विचार और भाव भाषा हैं और अपना अन्तविरोध छोड़कर रस, अभिव्यक्ति का उपकरण होने के कारण माध्यम भी। वीर कवि ने इसे समझा और उनमें श्रेणी विचलन, क्रम विचलन आदि द्वारा सृजनात्मक भाषा की शक्ति का उद्घाटन है। चिरकइकव्वामयमुहाण रुइभंगरसणाणं । सुयणाण मए वि कयं अल्लयकसरक्कउकव्वं ॥ प्रत्थाणुरूवभावो हियए पडिफुरइ जस्स वरकइणो । प्रत्थं फुडु गिरइ निरा-ललियक्खनेम्मिएहिं तस्स नमो॥ भावो तारो दूर अत्थस्स वि लाहमंडणं दूरे । पयडेवि कहाकहणे अण्णं चित्र का वि सा भंगी ॥ 7.1.1-6 यह ग्रंथ कवि द्वारा “बहुलत्थपसत्थपयं पवरमिणं चरिय मुद्धरिय" है ।14 तुलसी भी "तो फुर होउ जो कहेंउ सब भाषाभनिति प्रभाउ'15 की कामना करते हैं।

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