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जैनविद्या
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का और कहीं सम्बन्ध कराने का सुझाव दिया व दीक्षा लेने का अपना दृढ़ निश्चय अडिग रखा । कन्यानों ने और कहीं सम्बन्ध करने का विरोध किया और संदेश भेजा कि जंबूकुमार से हमारा परिणय करा दो । एक रात हम उनके पास रहेंगी, या तो वे हमारे स्नेह-पाश में बंधेगे, या हम चारों उन्हीं के वैराग्य पथ के पथिक बनेंगी। जंबूकुमार का यथारीति उन चारों कन्याओं के साथ परिणय हुया, सायंकाल उन चारों नवल-वधुओं के साथ जंबू कुमार अपने सुसज्जित शयन कक्ष में गये । नवल-वधुप्रों ने कामचेष्टाएं की पर वे व्यर्थ रहीं। तब उन्होंने कुछ ऐसी कथाएं कहीं जिससे जम्बू कुमार दीक्षा की हठ छोड़ दे। लेकिन जम्बूकुमार ने भी ऐसी अन्य कथाए कहीं जो पूर्व कथानों को निरर्थक कर दीक्षा का समर्थन कर रही थीं । फिर व्यंग्य भी कसे जा रहे थे व लोक-कथानों की चर्चा भी हो रही थी। इतने में विद्युच्चर नाम का चोर जम्बू कुमार के घर चोरी के लिए पहुंचा, वह उनके कमरे की भित्ति से छिप कर खड़ा हो गया व नूतन वर-वधुओं के कथा-संलाप को सुनने लगा। जम्बू कुमार की मां ने विद्युच्चर को देख लिया तो विद्युच्चर ने माता से कहा कि मुझे जंबकुमार के पास भीतर प्रवेश करा दो तो मैं कुमार को समझाने का यथाशक्ति प्रयत्न करूगा। मुझे प्राशा है कि मेरी बात वे मान जावेंगे, नहीं तो मैं भी उनके साथ दीक्षा ले लूंगा। मां ने उसे अपना छोटा भाई कह कर जंबूकुमार के कक्ष के अन्दर भेजा। जंबूकुमार ने अपने बने मामा का समुचित आदर किया और उसकी बात सुनी । विद्युच्चर ने भौतिक दर्शनों के ही तर्क दिये । जंबू कुमार ने उन तर्कों का खंडन कर उसे निरुत्तर कर दिया । कुछ कथानक भी दोनों पोर से कहे गये । अंत में विद्युच्चर को भी प्रतिबोध हो गया। उसने जंबकुमार की स्तुति की और दीक्षा लेने के अपने वचन के निर्वाह के लिए कटिबद्ध हो गया । चारों नवल वधुओं ने भी दीक्षा लेने की अपनी इच्छा बताई ।
जब जंबू कुमार की दीक्षा की बात राजा श्रेणिक तक पहुंची, तो बड़े उत्साह से जब कुमार का अभिनिष्क्रमण महोत्सव मनाया गया। पश्चात् सब लोग सुधर्म गणधर के पास गये व जम्बू कुमार ने दीक्षा ली । सब वस्त्र व अलंकार उतारकर फेंक दिये व सिर का केश लोंच कर लिया। विद्युच्चर ने भी दीक्षा ली। जबकुमार के पिता अरहदास भी निग्रंथ साधु हो गये । उनकी माता व चारों नवल वधुएं भी आर्यिका हो गईं। सारा भौतिक ऐश्वर्य व वैभव अध्यात्म रस में डूब गया। कल की सराग-टोली ग्राज वैराग्य की हम-जोली बन गई।
जंबूस्वामी अपने गुरु के साथ कठिन तप में संलग्न हो गये। अठारह वर्ष बीतने पर माघ शुक्ल सप्तमी के दिन विपुलगिरि के शिखर से सुधर्म स्वामी को निर्वाण और उसी दिन जंबूस्वामी को कैवल्य प्राप्त हुआ । इसके पश्चात् जंबूस्वामी अठारह वर्षों तक धर्मोपदेश देते हुए अंत में विपुलगिरि के शिखर पर निर्वाण को प्राप्त हुए ।
जंबूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् विद्युच्चर मुनि संघ के साथ ताम्र-लिप्ति पधारे । वे नगर के बाहर ही ठहर गये। वहां भूत-पिशाचों ने समस्त संघ पर महान् उपसर्ग किया । मुनि विद्युच्चर को छोड़कर शेष मुनि उपसर्ग सहन नहीं कर सके और भाग गये। मुनि