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जैनविद्या
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अब प्रश्न है काव्य के प्रयोजन का ! प्राचार्यों ने अनेक प्रयोजन गिनाए हैं जो चारों पुरुषार्थों में समाविष्ट हो जाते हैं। हमारे कवि का काव्यप्रणयन का प्रयोजन प्रेमोत्पत्ति है । प्रेम अहंकार का विस्तार है जिससे कलह आदि मिट जाते हैं। यह हम पहले ही कह चुके हैं कि हमारा कवि भाषा और भाव को अद्वैत मानता है। लोगों में प्रेम के भाव का विस्तार होगा तो अहिंसा की परणति होगी, द्वैत और कलह मिटेगा तथा नैतिकता को भय को अावश्यकता नहीं रहेगी।
विहवेण रायनियडत्तणेण कलहेण जत्थ कव्वगुणो। कव्वस्स तत्थ कइणा वीरेण जलंजली दिण्णा ॥ जत्थ गुडाईण जहा महुरत्ते भिण्ण भिण्ण मुवलंभो । निव्वडइ तत्थ गरुवं रसंतरं वीरवाणीणं ॥ 10.1.1-4
फिर 'परगुण परिहार परंपरए, प्रोसरउ हयासु सो विपरए'16 का अवकाश नहीं रह जाता । "तुलसी" का भी संबंध ऐसे लोगों से आया है जिस पर उन्हें कहना पड़ा -
जे परभनिति सुनत हरषाही, ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं। मानस 1.8
और उनकी दृष्टि में काव्य का महत्त्व यह है कि -
कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहं हित होई । मानस 1.14
इस में ही विषय का महत्त्व भी आ गया है । पार्नल्ड आदि इसके विशेष पक्षधर रहे हैं । "वीर" कवि भी विषय का महत्त्व स्वीकार करते हैं । "प्रशास्तियां" और "फलश्रुतियां" इस और संकेत करते हैं।
"वीर" कवि के समीक्षा सिद्धान्त भाषा के सभी रूपों के साथ सार्थक हैं । संस्कृत काव्य-शास्त्र का उसने उतना ही सहारा लिया है जितना वियोगावस्था की ओर झुकी भाषामों के लिए आवश्यक था। उसे उसने लादा नहीं है, पचाया और प्रात्मसात् कराया है जो आज भी उतना ही सार्थक है जितना तब रहा होगा।
1. काव्यमीमांसा, राजेशेखर, चौ०वि०भ०वाराणसी, सन् 1982, पृ. 121, 2. वही, पृ. 124 3. वही, पृ. 126 4. वही, पृ. 128 5. वही, पृ. 132 6. ध्वन्यालोक, 4.109 की कारिका। 7. वही, 4.118 की कारिका । 8. बन्धच्छायऽप्यर्थद्वयानुरूपशब्दसन्निवेशार्थ प्रतिभानाभावे कथमुपपद्यते ।
ध्वन्यालोक, 4.110 की कारिका ।