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जैन विद्या
इस प्रकार कवि काव्य में यथार्थ मानवीय क्रियाकलापों का वर्णन भी उपलब्ध होता है । इसमें नागरिकों की उद्यान-क्रीड़ा, वेश्याओं के काम-व्यापार, साधुओं के दर्शनों के लिए राजा का सपरिवार-ससैन्य गमन, सैन्य-पड़ाव या छावनी तथा सेना के द्वारा नगर-विध्वंस आदि के वर्णन भी उल्लेखनीय हैं ।
प्रकृतिचित्रण
प्रस्तुत काव्यकृति में प्रकृति के विभिन्न अंगों का नाना रूपों में विस्तार से चित्रण मिलता है । प्रकृति का कहीं उपदेशिका, कहीं आलंबन, कहीं उद्दीपन, कहीं अंलकार-विधान
आदि रूपों में अत्यंत मनोहारी निरूपण उपलब्ध होता है । प्रकृति का उपदेशिका रूप में चित्रण सैन्य प्रयाण के समय उड़ी हुई धूलि के शांत होने के वर्णन में परिलक्षित है, यथा -
प्रह सुहडकोवडम्भंतियाहे, उच्छलइ व धूमुग्गारु ताहे। . पयछड्डिवि अप्पारणउ तडेइ, अकुलीणु प्रवस मत्थए चडेइ । मज्जइ व महागयमयजलेण, नच्चइ च चमरचलमरुछलेण । अंधारियाई निम्मलथलाइं, संरुदचक्खु बेण्णि वि बलाई। 65.1-4
काव्यकृति की तीसरी-चौथी सन्धि में उद्यान और बसंत आदि के वर्णनों द्वारा कवि ने प्राकृतिक चित्र उपस्थित किए हैं। ये वर्णन श्रृंगार की पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। बसन्त वर्णन में शब्दयोजना भी बसंत के समान सरस और मधुर है -
दिणि दिणि रयरिणमाणु जिह खिज्जइ, दूरपियाण निद्द तिह खिज्जइ। दिवि दिवि दिवसपहरु जिह वड्ढइ, कामुयाण तिह रइरसु वड्ढइ । दिवि विवि जिह चूयउ मउरिज्जइ, माणिणिमाणहो तिह मउ रिज्जइ। कलकोइलकलयलु जिह सुम्मइ, तिह पंथिय करंति घरे सुम्मइ ।
___3.12.3-6
इस प्रकार वीर कवि द्वारा वर्णित नाना रूपों में प्रकृति-चित्रण उनके कला-कौशल का सुन्दर निदर्शन है।
रसयोजना
कवि वीर द्वारा इस प्रेमाख्यान महाकाव्य में सभी रसों की अभिव्यंजना हुई है। इनमें शृंगार, वीर और शांत ये तीन रस प्रधान हैं। यद्यपि कृतिकार ने अपनी कृति को "शृंगार-वीर महाकाव्य" कहा है तथापि इन दोनों रसों का पर्यवसान शांत रस में होता है।
इस महाकाव्य का प्रारम्भ बड़े भाई के द्वारा छोटे भाई भवदेव के अनिच्छापूर्वक दीक्षित कर लिए जाने से प्रियावियोगजन्य विप्रलम्भ श्रृंगार से होता है। भवदेव के प्रेम की प्रकर्षता और महत्ता इसमें है कि वह दिगम्बर मुनि-वेश में प्रग्रज की देख-रेख में मुनिधर्म