Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 44
________________ 38 जनविद्या इसमें सुभाषितों और लोकोक्तियों का प्रयोग भी कविश्री द्वारा हुअा है - कच्चे पल्लट्ठइ को रयण, पित्तलए हेमु विक्कइ कवणु । 2.18.5 अर्थात् कांच से रत्न को कौन बदलेगा? पीतल से सोने को कौन बेचेगा ? भोजपूर्ण उक्तियां भी द्रष्टव्य हैं यथा - चंदहो करपंसणु को कुणइ । 5.4.12 अर्थात् चन्द्रमा की किरणों को कौन छू सकता है ? जममहिससिंगुक्खणइ कवणु। 5.5.2 अर्थात् यमराज के भैंसे के सींगों को कौन उखाड़ सकता है ? गरुडमुहकुहरे पइसइ । 5.5.2 अर्थात् गरुड के मुख-कुहर में कौन प्रवेश कर सकता है ? कविश्री से सुभाषितों के प्रयोग में कोई भी पक्ष अछूता नहीं रहा। चाहे कविसमय के अनुसार सज्जन और दुर्जन की प्रकृति का उल्लेख हो या गुण-दोषों की चर्चा या फिर कवि और काव्य-विषयक स्थापनाएं सभी को कविश्री ने अपने काव्य में प्रयुक्त सुभाषितों के आयाम में पिरोया है । इससे "जंबूसामिचरिउ' के महाकाव्यत्व में और भी अधिक निखार पा गया है। गुण एवं रीतियुक्तता महाकवि वीर ने अपनी रचना में माधुर्य, अोज एवं प्रसाद तीनों गुणों का प्रचुर समावेश किया है । इनमें माधुर्य10 का प्राधान्य है। इसके उपरान्त प्रोज11 एवं प्रसाद12 गुणों का । सम्पूर्ण रचना में सबसे अधिक प्रयोग वैदर्भी रीति का हुआ है । दो, तीन, आठ, नौ, दस और ग्यारह संधियां वैदर्भी शैली में रचित हैं । वैदर्भी के उपरान्त पांचाली का प्रयोग हुअा है। संधि छह और सात गौड़ी शैली में रचित हैं और लाटी का प्रयोग सबसे कम हुआ है जो अपनी अनिश्चितता की स्थिति के कारण स्वाभाविक है ।13 इस प्रकार "जंबूसामिचरिउ" की रचना एक ही शैली में नहीं बल्कि चारों शैलियों में मिश्रितरूपा है। अलंकारयोजना कविश्री ने अपने भावों को स्पष्ट करने के लिए नाना अलंकारों की योजना की है। शब्दालंकारों में अनुप्रास और यमक तथा अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपकों से काव्यरचना आद्योपान्त विभूषित है । कहीं-कहीं श्लेष के प्रयोग से भाषा क्लिष्ट और अस्वाभाविक भी हो गई है । बसंत वर्णन में यमकालंकार दर्शनीय है --- वियसियकुसुमु जाउ अइमुत्तउ, घुम्मइ कामिणीयणु अइमुत्तउ । मंदु मंदु मलयानलु वाइय, महुरसदु जणु वल्लइ वायइ ॥ 3.12

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