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जैनविद्या
पूर्णरूप से सफल हुए हैं। अपभ्रंश प्रबन्धकाव्यों में वीर कवि का यह चरितात्मक महाकाव्य "जंबूसामिचरिउ" अपना महनीय स्थान रखता है । इस महाकाव्य की प्रभावना संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के परवर्ती कवियों नयनंदि, रइधू, ब्रह्म जिनदास और राजमल्ल पर पर्याप्त रूप से परिलक्षित है।
1. भारतीय साहित्य कोष, सम्पा.-डॉ. नगेन्द्र, पृष्ठांक 1179 । 2. विक्कम णिव कालाउ छाहत्तर दस सएसु वरिसाणं । माहम्मि सुद्ध पक्खे दसम्मी दिवसम्मि संतम्मि ।।
-जंबूसामि चरिउ, अन्तिम प्रशस्ति 3. यह वंश ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दियों में खूब प्रसिद्ध रहा है। अपभ्रंश
कवि धनपाल और "धर्मपरीक्षा के प्रणेता हरिषेण इसी वंश के थे। 4. जंबूसामिचरिउ, सम्पा.-डॉ. विमलप्रकाश जैन, पृष्ठ 12 । 5. जंबूसामिचरिउ, प्रशस्ति गाथा 5 । 6. अपभ्रंश भाषा का "जंबूसामिचरित और महाकवि वीर"-पं. परमानन्द जैन शास्त्री, प्रेमी
अभिनंदन ग्रंथ पृष्ठ, 443 । 7. जंबूसामिचरिउ. सम्पा.--डॉ. विमलप्रकाश जैन, पृष्ठ 79-80 । 8. अपभ्रंश का एक शृंगार वीर काव्य, श्री रामसिंह तोमर, अनेकांत, वर्ष 9, किरण 10 । 9. अपभ्रंश भाषा का जंबूसामिचरित और महाकवि वीर-पं. परमानन्द जैन शास्त्री, प्रेमी ___अभिनंदन ग्रंथ, पृष्ठ 440 । 10. जंबूसामिचरिउ, 2.14, 4.17-18 11. जंबूसामिचरिउ, 4.21, 5.14, 6.11 12. जंबूसामिचरिउ, 4.13, 9.1 13. जम्बूसामिचरिउ, सम्पा.--डॉ. विमलप्रकाश जैन, पृष्ठ 112 । 14. जंबूसामिचरिउ, 2.15, 3.4 15. जंबूसामिचरिउ, 4.10, 3-7