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जैन विद्या
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मा होंतु ते कईदा गरुयपबंधेहि जाण निव्वूढा । रसभावमुग्गिरंती विप्फुरइ न भारई भुवणे । संति कई वाई विहं वण्णक्करिसे सूफ़रियविण्णाणा । रससिद्धिसंचियत्थो विरलो वाई कई एक्को । विजयंतु जए कइणो जाणं वाणी प्रइट्ठपुव्वत्थे । उज्जोइयधरणियला साहय-वट्टिव्व निवडई । जाणं समग्गसद्दोह.दुउ रमइ मइफडक्कम्मि।
ताणं पि हु उवरिल्ला कस्स व बुद्धी परिप्फुरइ । 1.6.3-10 कवि की स्वयं की उक्ति है -
स कोऽप्यंतर्वेद्यो वचनपरिपार्टी घटयतः । कवेः कस्याप्यर्थः स्फुरति हृदि वाचामविषयः। सरस्वत्यप्यर्थान् निगदनविधौ यस्य विषमामनात्मीयां चेष्टामनुभवति कष्टं च मनुते । 1.6.11-14
आगे कवि ने कुछ-कुछ गर्वोक्त्ति के रूप में काव्यरूप का उल्लेख किया है -
भरहालंकारसलक्खणाई लक्खेपयाई विरयंती । वीरस्स वयणरंगे सरस्सइ जयउ नच्चंती । 3.1.3-4 कव्वस्स इमस्स मए विरइय-वण्णस्स रससमुदस्स । गंतूण पारमहियं थावउ प्रत्थं महासंतो। सालंकरं कव्वं काउं पढ़िउं व बुझिउं तह य । अहिणेउं च पवोत्तुं वीरं मुत्तूण को तरइ । 8.1.7-10
'तुलसी' ने भी 'मानस' के रूपक में 'उपमा', 'चौपाई', 'छंद', 'सोरठा', 'दोहा', 'अनुपम-अर्थ', 'सुभाव', 'सुभाषा', 'धुनि', 'प्रवरेव', 'काव्यगुण', 'काव्य जाति', 'नवरस', और उकथा, 'अनेक प्रसंगा', आदि अनेक नाम काव्य-जगत् के लिये हैं । लेकिन यह गर्वोक्ति नहीं है, न 'वीर' कवि में और न "तुलसी" में । जहां पुरानी थाती-विरासत पचती नहीं है, वहां घबराहट रहती है जैसे 'सेनापति' में है
बानिसों सहित सुबरन मुंह रहै जहाँ ।
___ धरत बहुत भांति प्ररथ समाज को। संख्या करि लीज अलंकार हैं अधिक यामें
.. राखौ मति ऊपर सरस ऐसे साज को। सुनौ महाजन ! चोरी होति चार चरन की
___ताते सेनापति कहै तजि उर लाज को। लीजियो बचाय ज्यों चुरावे नाहिं कोउ, सौंपी,
वित्त की सी थाती मै कवित्तन के ब्याज को।