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________________ जैन विद्या 29 मा होंतु ते कईदा गरुयपबंधेहि जाण निव्वूढा । रसभावमुग्गिरंती विप्फुरइ न भारई भुवणे । संति कई वाई विहं वण्णक्करिसे सूफ़रियविण्णाणा । रससिद्धिसंचियत्थो विरलो वाई कई एक्को । विजयंतु जए कइणो जाणं वाणी प्रइट्ठपुव्वत्थे । उज्जोइयधरणियला साहय-वट्टिव्व निवडई । जाणं समग्गसद्दोह.दुउ रमइ मइफडक्कम्मि। ताणं पि हु उवरिल्ला कस्स व बुद्धी परिप्फुरइ । 1.6.3-10 कवि की स्वयं की उक्ति है - स कोऽप्यंतर्वेद्यो वचनपरिपार्टी घटयतः । कवेः कस्याप्यर्थः स्फुरति हृदि वाचामविषयः। सरस्वत्यप्यर्थान् निगदनविधौ यस्य विषमामनात्मीयां चेष्टामनुभवति कष्टं च मनुते । 1.6.11-14 आगे कवि ने कुछ-कुछ गर्वोक्त्ति के रूप में काव्यरूप का उल्लेख किया है - भरहालंकारसलक्खणाई लक्खेपयाई विरयंती । वीरस्स वयणरंगे सरस्सइ जयउ नच्चंती । 3.1.3-4 कव्वस्स इमस्स मए विरइय-वण्णस्स रससमुदस्स । गंतूण पारमहियं थावउ प्रत्थं महासंतो। सालंकरं कव्वं काउं पढ़िउं व बुझिउं तह य । अहिणेउं च पवोत्तुं वीरं मुत्तूण को तरइ । 8.1.7-10 'तुलसी' ने भी 'मानस' के रूपक में 'उपमा', 'चौपाई', 'छंद', 'सोरठा', 'दोहा', 'अनुपम-अर्थ', 'सुभाव', 'सुभाषा', 'धुनि', 'प्रवरेव', 'काव्यगुण', 'काव्य जाति', 'नवरस', और उकथा, 'अनेक प्रसंगा', आदि अनेक नाम काव्य-जगत् के लिये हैं । लेकिन यह गर्वोक्ति नहीं है, न 'वीर' कवि में और न "तुलसी" में । जहां पुरानी थाती-विरासत पचती नहीं है, वहां घबराहट रहती है जैसे 'सेनापति' में है बानिसों सहित सुबरन मुंह रहै जहाँ । ___ धरत बहुत भांति प्ररथ समाज को। संख्या करि लीज अलंकार हैं अधिक यामें .. राखौ मति ऊपर सरस ऐसे साज को। सुनौ महाजन ! चोरी होति चार चरन की ___ताते सेनापति कहै तजि उर लाज को। लीजियो बचाय ज्यों चुरावे नाहिं कोउ, सौंपी, वित्त की सी थाती मै कवित्तन के ब्याज को।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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