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रहती है
जैनविद्या
विस्तार और संक्षेप समास - व्यास के भेद पर भी मन की गांठ ज्यों की त्यों बनी
वित्थरसंखेवहु दिव्वभुणी, गरुयारउ अंतरु वीर सणी । सरि-सर-निवाण - ठिउ बहु वि जलु सरसु न तिह मण्णिज्जइ ।
थोवउ करयत्थु विमलु, जणेण श्रहिलासें जिह पिज्जइ । 1.5.9-11
गुणों की वैशेषिकता में भी उनका विश्वास नहीं दीख पड़ता है । यद्यपि दोष सापेक्ष संज्ञा है जो अन्यथा प्रकार्यता में अपने बल को खो देती है । प्रानन्दवर्धन ने तो यह कहा ही है कि अत्यंत चमत्कारजनक व्यंग्य रसादि पुरातन अर्थ को भी एक अपूर्व रमणीय बना देता
प्रतोद्यन्यतमेनापि प्रकारेरण विभूषिता । वाणी नवत्वमायाति पूर्वार्थान्वयवत्यापि ॥ ध्वन्यालोक 4.106 "अंगिभूतरसाद्याश्रयेण काव्ये क्रियमाणे नवनवार्थलाभो भवति बंधच्छाया च महति सम्पद्यत इति । " 6 वाच्यार्थ विशेष के कारण भी अर्थ नवीन हो जाते हैं।
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प्रवस्थादेशकालादि - विशेषैरपि जायते । श्रानन्त्यमेव वाच्यस्य शुद्धस्यापि स्वभावतः ।
ध्वन्यालोक 4.111
अतः औचित्य के अनुसार रस, भाव आदि से सम्बद्ध तथा देश,
काल, अवस्था आदि
के भेद से युक्त पदार्थ रचना के अनुसरण करने पर भी नवीनता - अनन्तता का प्रधान होता
है
रसभावादि सम्बद्धा यद्यौचित्यानुसारिणी । श्रन्वीयते वस्तुगतिर्देशकालादि मेदिनी ॥
ध्वन्यालोक 4.113
" रसादि रूप सारभूत व्यंग्य पदार्थ के होने पर पूर्ववरिंगत पदार्थ का अनुसरण करनेवाला भी नवीन काव्य पदार्थ अधिक शोभित होता है, क्योंकि पुरातन रमणीय सौंदर्य से उल्लासित होनेवाला पदार्थ शरीर के समान परम सुषमा को प्राप्त होता है । "7 कवि वीर" स्वयं भी अपने सरस काव्य से धरिणी को धन्य मानता है।
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देत दरिदं परवसण दुम्मणं सरसकव्वसव्वस्सं । कवीरसरिसपुरिसं धरणि धरती कयत्यासि ॥
6.1.1
यह सब प्रतिभा का खेल है जिसमें वस्तु व्यक्ति, मति रति, दर्शन-वर्णन आदि सभी बीज रूप में निहित हैं । प्रतिभा के बिना रमणीय अर्थ के अभिव्यंजन करनेवालो शब्दों का सन्निवेश भी असंभव है । इसको दूर की सूझ और " नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा" भी कहा जाता है । यह दो प्रकार की होती है-भावयित्री प्रतिभा और कारयित्री प्रतिभा । भावयित्री प्रतिभा का सम्बन्ध रस है और कारयित्री का रमणीय अभिव्यक्ति से । कवि स्वयं भी पाठक होता है, रसज्ञ होता है और स्वयं भी अपने कृतित्व का मूल्यांकन करता रहता है । इसका कवि के