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जनविद्या
'वीर' कवि अत्यंत विदग्ध एवं 'स्वयंभू', 'पुष्पदंत' तथा 'देवदत्त' की पंक्ति का है। वह अत्यंत विचक्षण और बहुश्रुत है। उसके अस्तित्व-व्यक्तित्व से एक बड़े अभाव की पूर्ति
संते सयंभुएवे एक्को य कइत्ति बिणि पुणु भरिगया । नायम्मि पुफ्फयंते तिम्णि तहा देवयत्तम्मि । दिवसेही इह कवित्तं निलए निलयम्मि दूरमावग्णं ।
संपइ पुणो नियत्तं जाए कइवल्लहे वीरे ॥ 5.1.1-2 वह अत्यंत गुणी था, उसकी विद्वत्ता और उसका व्यवहार अत्यंत प्रशस्त और विशुद्ध थे -
प्रगुणा न मुणंति गुणं गुणिणो न सहंति परगुणे द?। . वल्लहगुणा वि गुणिणो विरला कई "वीर" सारिच्छा ॥ 4.1.1
शास्त्र सब उसे हस्तामलकवत् थे । उसने पढ़ा ही नहीं था, गुना भी था और गहराई में उतरकर समझा था । 'निघंटु' उसे कंठस्थ था और शब्दानुशासन उसकी अंगुलियों पर । व्याकरण पर उसका अप्रतिम अधिकार था। उसकी सूक्ष्मताएं एवं अगाधता से उसका पूर्ण परिचय था । छंद का अभ्यास भी विस्तृत था । संधि, समान, दोष आदि से वह पूर्णतया अवगत था और गद्य-पद्य बंध के कौशल में दक्ष --
सुकवित्तकरणि मणवावडेण, सामग्गिकवण किय मई जडेण । परिकलिउ पईउ नि सद्दसत्य, सुत्तु वि निप्पज्नइ जेत्थु वत्थु । वणगउ सच्छंदु निघंटु सुणिउ, गोरसवियारु पर तक्कु मुणिउ । महकइविनिबद्ध न कव्वभेउ, रामायणम्मि पर सुरिणउ सेउ। गुणु सुयणे विधि सुयनामकरणे, चारित्त वित्त पयबंधु वरणे। 1.3.1-5
'वीर' कवि अच्छी प्रकार जानता है कि स्वोपज्ञता की प्रतिष्ठा परम्परा के बीच ही सम्भव है । यह परम्परा से विच्छिन्न या कटी हुई वस्तु नहीं है इसलिए वह प्राचीन साहित्य का अत्यन्त आत्मीयतापूर्वक अध्ययन करता है, अपने पूर्ववर्ती कवियों को सम्मानपूर्वक स्मरण करता है । इस ग्रहणशील प्रज्ञा का दूसरा नाम विनय है । पुराने कवियों द्वारा निर्मित ये सेतु हैं जिन पर चलना सरल होता है, श्रम-स्वेद मुक्त हमारे कवि में यह विनय अत्यन्त गहरी है -
करजोडिवि विउसहो अणुसरमि, अन्भत्थण मज्जत्यहो करमि । अवसद्दु नियवि मा मणिधरउ, परिउछिवि सुदंरु पउ करउ। 1.2.6-7
कवि के परवर्ती, 'तुलसी' ने भी इस महत्त्व को बड़ी विनय के साथ समझा-बूझा है, सामाजिक श्रद्धा को उनके चरणों पर उंडेला है-बहाया है -