Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 26
________________ जैनविद्या को विवायर गमणु पडिखलइ । जममहिस सिंगुक्खणइ । कवणु गरुडमुहकुहरे पइसइ ॥ को कूरग्गहु निग्गहइ 118 कवि ने भाषा में अनुरणनात्मक पदावली का प्रयोग भी किया है। युद्ध के समय बजते हुए नाना वाद्यों की ध्वनि स्पष्ट सुनाई पड़ती है। देखिए ___ धुमुधुम्मुक-धुमुधुमियमद्दलवरं ।19 आदि अलंकार कवि ने सादृश्यमूलक उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार के द्वारा वस्तु स्वरूप-बोध को ध्यान में रखा है । उनका प्रयोग कवि ने भावाभिव्यक्ति के लिए स्वाभाविक रूप से किया है। छन्द कवि ने पज्झट्टिका, पत्ता, दुवई, दोहा, गाथा, वस्तुखंडय आदि मात्रिक छन्दों का और स्रग्विणी, शिखरिणी, भुजंगप्रयात प्रादि वर्णवृत्तों का प्रयोग किया है । उनकी गाथाओं की भाषा प्राकृत से प्रभावित है। निष्कर्ष यह है कि अपभ्रन्श की चरितकाव्य परम्परा में जम्बूसामिचरिउ का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। 1. जम्बूसामिचरिउ, महाकवि वीर, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला, सीरीज-7। 2. संते संयमुएवे एक्को य कइत्ति विण्णि पुणु भणिया। जायम्मि पुप्फयन्ते तिण्णि तहा देवयत्तम्मि ।। 5.1.1-2 3. मुहियएण कव्वु सक्कमि करेमि, इच्छमि भएहिं सायरु तरेमि । अह महकइरइउ पबंधु मई कवणु चोज्जु जं किज्जइ । विद्वइ हीरेण महारयणे सुत्तेण वि पइसिज्जइ ।। 1.3.7-10 4. जयति मुनिवृदवंदित-पद-युगल-विराजमान-सत्पद्मः । विबुध संघानुशासन विद्यानामाश्रयो वीरः ।। 1.18.16-17 5. जम्बूसामिचरिउ । 4.19 6. वहुवयणकमलरसलंपडु, भमरु कुमारु न जइ करमि । आएण समाणु विहाणए, तो तवचरणु हउं मि सरमि ।। 9.16.11-12 भारहरणभूमि व सरहभीस, हरि-अज्जुण-नउल-सिंहडिदीस । गुरु-पासत्थाम-कलिंगचार, गयगज्जिर-ससर-महीससार । लंकानयरी व सरावणीय, चंदहिं चार कलहावणीय । सपलास-संकचण-अक्खथड्ढ, सविहीसण-कइ-कुलफलरसड्ढ । कंचाइणी व्व ठिय कलण काय, सछल विहारिणी मुक्कनाय ॥ 5.8.31-35

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