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अध वानुप्रेक्षा
गिरिनइपूरु व श्राउसु खुट्टइ,
पक्कफलं पिव माणुसु तुट्टइ । सियलावण्णु- वण्णु - जोव्वण वलु,
बंधव - पुत्त- कलत्तइं
गलई नियंतहो गं अंजलिजलु । अण्णई, पवणाहयई जंति गं रह- करि तुरय- जाण - जंपाणई,
पण्णइं ।
श्रहिणवघरण उन्नयण चामर - जत्त - चिध- सिंघासणु,
समाई ।
विलासुहास ।
दिवसहि कारणु तं जि विसायहो ।
विज्जुलचवल श्रासि निमित्तु जं जि प्रणुरायहो,
मोहें तो वि जीउ प्रणुगण्णई, अजरामरु अप्पाणउं
मण्णइं ।
अर्थ - पहाड़ी नदी के भराव के समान आयु समाप्त हो जाती है; मनुष्य जन्म पके फल के समान टूट कर गिर जाता है; श्री, सौन्दर्य, वर्ण, यौवन श्रौर बल हाथ की अंजुलि में जल की भाँति नित्य ही गलते रहते हैं; बांधव, पुत्र, स्त्री एवं अन्य परिजन पवन द्वारा उड़ाये हुए पत्तों की तरह चले जाते हैं; रथ, हाथी, घोड़े, यान और पालकी मेघ की तरह विलय हो जाते हैं; चंवर, छत्र, ध्वजा और सिंहासन बिजली के चपल विलास की भी हंसी उड़ाते हैं; जो
वस्तु अभी जीव के अनुराग का निमित्त है वही बाद में उसके विषाद का कारण बन जाती है तो भी जीव इस तथ्य की अवहेलना करता है और स्वयं को अजर-अमर मानता है ।
- जं. सा. च. 11.1.6-12