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जैन विद्या
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का पूरा पुट है। इसलिए जहां एक ओर साहित्यिक वर्णन तथा शिष्ट प्रयोग हैं, वहीं लोक जीवन की सामान्य बातों का विवरण घरेलू वातावरण में वरिणत है।' धनपाल की भाषा साहित्यिक भाषा है । केवल लोक बोली का पुट या उसके शब्द-रूपों की प्रचुरता होने से हम उसे उस युग की बोलीजानेवाली भाषा नहीं मान सकते क्योंकि प्रत्येक रचना में बोलचाल के कुछ शब्दों का पा जाना स्वाभाविक है । इसका विचार भाषा की बनावट को ध्यान में रखकर किया जा सकता है कि वह बोली है या भाषा? धनपाल की भाषा में जैसी कसावट और संस्कृत के शब्दों के प्रति झुकाव है उससे यही सिद्ध होता है कि उनकी भाषा बोलचाल की न होकर साहित्य की है।
सादृश्यमूलक अलंकार-धनपाल ने अपने इस कथाकाव्य में सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग किया है। उन्होंने उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग अधिक किया है। उपमा अलंकार के तो कई रूप मिलते हैं, मूर्त और अमूर्त भावों में भी साम्य दिखाया है । उदाहरणार्थ
तेरण वि दिठ्ठ कुमार प्रकायरु । बडवानलिण नाई रयणायरु ।।
... -5.18 अर्थात् उस राक्षस ने भविष्यदत्त कुमार को वैसा ही कायर देखा जैसे समुद्र के भीतर रहनेवाली बडवाग्नि होती है ।
इसी प्रकार धनपाल ने अपने कथाकाव्य में प्रकृति-वर्णन में मानवीय रूपों तथा भावों की भी बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की है । कवि की उर्वर एवं अनुभूतिमयी कल्पना का परिचय उसकी अलंकार-योजना में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
निष्कर्ष यह कि अपभ्रंश के कथाकाव्यों में 'भविसयत्तकहा' का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इम कथाकाव्य में प्रबन्धकार कविवर धनपाल की काव्यकला का अत्यन्त सुन्दर दिग्दर्शन उपलब्ध होता है। अपभ्रंश के चरित-काव्यों का हिन्दी साहित्य में महत्त्व निरुपित करते हुए प्राचार्य डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है--'इन चरित-काव्यों के अध्ययन से परवर्तीकाल के हिन्दी साहित्य के कथानकों, कथानक-रूढ़ियों, काव्यरूपों, कवि-प्रसिद्धियों, छन्द-योजना, वर्णन-शैली, वस्तु-विन्यास, कवि-कौशल आदि की कहानी बहुत स्पष्ट हो जाती है। इसलिए इन काव्यों से हिन्दी साहित्य के विकास के अध्ययन में बहुत महत्त्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है ।' प्राचार्य द्विवेदी ने रामचन्द्र शुक्ल के मत का खण्डन करते हुए धनपाल प्रादि जैन कवियों को हिन्दी काव्य-क्षेत्र में गौरवपूर्ण स्थान देने के लिए बड़ा ठोस तर्क दिया है-'स्वयम्भू, चतुर्भुज, पुष्पदन्त और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्य-क्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते । धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य-क्षेत्र में अविवेच्य हो जाएगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य-सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा।' प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने धनपाल के 'भविसयत्तकहा'