Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 79
________________ भविसयत्तकहा का कथारूप -डॉ० गदाधरसिंह कथा उतनी ही प्राचीन है जितनी सृष्टि । अपने जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त मानव प्रकृति के कोड़ में किलकता, विहंसता, प्रानन्द मनाता और अन्त में उसी के प्रांचल की शीतल साया में सदा के लिए चिर-शान्ति में लीन हो जाता है। कथा की कला उसे प्रकृति से प्राप्त होती है । वृक्षों के हिलने में, कलियों के स्पर्श से उन्मत्त होकर बहनेवाले पवन की गति में, कूलों को ध्वस्त कर उच्छृखल भाव से बहनेवाली सरिताओं के अट्टहास में एक कथा है। नानी की गोद में बैठकर बालक जिस जिज्ञासा-भाव से कथा सुनता है वह जिज्ञासा उसके रक्त के अणु-अणु में आजीवन विद्यमान रहती है। जिस भावना को मनुष्य किसी अन्य माध्यम से दूसरों तक नहीं पहुंचा सकता उसे बड़ी प्रासानी से वह कथाओं के माध्यम से पहुंचा देता है। यही कारण है कि साहित्य में कथा को इतना ऊंचा स्थान प्राप्त है। .. ... . अपभ्रंश में कथा का विपुल साहित्य निर्मित हुआ है। इस विशाल कथा-साहित्य में कुछ तो व्रतमाहात्म्यमूलक हैं, कुछ उपदेशात्मक हैं और कुछ प्रेमाख्यानक । इनके अतिरिक्त कुछ रचनाएं ऐसी भी हैं जो कथाओं के संकलन हैं और काव्यरूप में उपलब्ध हैं। अपभ्रंश कथा-साहित्य की महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं-भविसयत्तकहा, जिनदत्तकहा,

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