Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 80
________________ 1 . जैनविद्या विलासवईकहा, सिरिपालकहा, सत्तवसणकहा, सुगंधदहमीकहा, पउमचरिउ, सदसणचरिउ, जिनदत्तचउपई, कहाकोसु, पुण्णासवकहाकोसु आदि । प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन (8.7-8) में कथा,के उपाख्यान, पाख्यान, निदर्शन, प्रवह्निका, मंथलिका, मणिकुल्या, परिकथा, खंडकथा, सकलकथा और वृहत्कथाये दस भेद बताये हैं। उन्होंने पाख्यायिका और कथा में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है कि पाख्यायिका का नायक ख्यात होता है । उसमें उच्छवास होते हैं और वह संस्कृत गद्य में लिखी जाती है जैसे-हर्षचरित । इसके विपरीत कथा का नायक धीरशांत होता है। वह गद्य-पर दोनों में लिखी जा सकती है जैसे-कादम्बरी या लीलावती ।। जैन-साहित्य में पात्रों के आधार पर भी कथानों का विभाजन हुआ है- 1. दिव्य 2. मानुष और 3. दिव्यमानुष । दिव्यकथा वह है जिसके पात्र देवता, गन्धर्व, यज्ञ, विद्याधर प्रादि दिव्य-लोक के निवासी होते हैं। मानुषकथा के पात्र अपनी दुर्बलतानों तथा विशिष्टतामों से युक्त इसी धरती के मनुष्य होते हैं। दिव्यमानुष कथानों के पात्र देवता तथा मनुष्य दोनों होते हैं । अलौकिक-शक्ति-सम्पन्न ये देवता मनुष्य की तरह सोचते, विचारते तथा प्राचरण करते दिखाये जाते हैं। उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में स्थापत्य के प्राधार पर कथानों के ये पांच भेद किए हैं-सकलकथा, खण्डकथा, उल्लापकथा, परिहासकथा और संकीर्णकथा । सकलकथा प्राधुनिक उपन्यास और लघु कहानी के बीच की चीज है। प्राचार्य प्रानन्दवर्धन ने भी इसकी स्वीकृति दी है । खण्डकथा का उल्लेख अग्निपुराण- (337.12) तथा ध्वन्यालोक (3.7) में भी हुआ है। यह कथा आधुनिक कहानी की तरह होती है जिसमें जीवन का एक लघुचित्र उपस्थित किया जाता है उल्लापकथा साहसिक कथा है । परिहासकथाएं हास्य एवं व्यंग्य का सृजन करती हैं । संकीर्ण या मिश्र कथा सभी कथानों का मिला-जुला रूप होता है। इस तरह से कथानों का वर्गीकरण जिस रूप में हुआ है वह वस्तुतः रूढ़िमात्र है । अपभ्रंश में कथा-साहित्य का विकास जिस रूप में हुआ है उस रूप में ये विभाजन आरोपित मात्र लगते हैं। अपभ्रंश में कथा, चरित, महाकाव्य प्रादि सभी के मेल से एक ऐसी-काव्य विधा का निर्माण हुआ है जिसे बंधी-बंधाई परिभाषानों के चौखटे में प्राबद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के कथा-काव्यों का कथानक दो भागों में बंटा हुआ होता है -प्रथम भाग में लोककथा एवं प्रेमकथा की सरसता होती है और द्वितीय भाग में कथानक धर्मकथा का रूप ले लेता है। धनपाल की भविसयत्तकहा में इन दोनों प्रवृत्तियों का समन्वित रूप दिखाई पड़ता है। उन्होंने लौकिक निजन्धरी कथाओं के साथ जैनधर्म के सिद्धान्तों को

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