________________
भविसयत्तकहा का धार्मिक परिवेश
-श्री श्रीयांशकुमार सिंघई
जैसे जलधाराविहीन बंजर भूमि के गर्भ में जल का प्रतुल स्रोत छिपा रहता है जो कभी भी अनुकूल अवसर मिलने पर जलधारा का रूप ले भूमि को रससिक्त कर देता है। वैसे ही यह प्राणी भी अपने में धर्म या सुख के अनाद्यनन्त अविनश्वर स्रोत को समाये रखता है जो कभी भी अनुकूल पुरुषार्थ के परिपाक में धर्मधारा बन प्रारणी को परम प्रसन्न बना देता है। तात्पर्य यह है कि प्राणियों में धर्म की शक्ति तो होती है पर उसकी साम्प्रतिक अभिव्यक्ति नहीं होती । अभिव्यक्ति के बिना शक्ति सुप्त रहती है जिससे लाभांश की प्राप्ति संभव नहीं । जागरण के बिना लाभ कैसा ? शक्ति का तदनुकूल श्रभिव्यंजन ही उसका जागरण है । जागरण ही धर्म की धारा है जो अधिकांशतः धर्म के अभिधान से व्यवहृत होती है, इसे जानना सच्चाई को स्वीकारना है । सच्चाई है - धर्म पाया नही जाता जागृत किया जाता है । 'हमें धर्म पाना है' का मतलब है हमें अपने अवस्थित अनभिव्यक्त धर्म को मात्र जगाना है, अभिव्यक्त करना है, तदर्थ परावलम्बी नहीं स्वावलम्बी बनना है । जागरण का यह मत्र प्रर्थात् धर्म के मर्म का संदेश यथासंभव जैन महर्षियों और विद्वानों ने अपने साहित्य में अनुस्यूत किया है । वस्तुतः जागरण का यह लक्ष्य ही उनके साहित्य का जीवन है तथा अपनी अर्थवत्ता का सबल माध्यम भी ।