Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
View full book text
________________
130
जनविद्या
यह सिवसोक्खुह मग्नु मुणीज्जा ।
यह सिवसोक्खहं मग्नु मुणिज्जइ ।। समाधि ॥38॥ नइ अप्पा अष्पडि गुण लग्ना।
ते संसार महादुह भम्ना ।। समाधि ।।391
करमु न किज्जइ सहजिय छिज्जइ ।
अप्पस्वरूवह जिउ लावइ नइ ।। समाधि ॥4॥ सुद्ध फलिह सरिसड जिउ इक्कु कुरन्तु ।
सकल देउ वुच्चइ अरहन्तू ॥ समाधि ॥410 अट्ठकम्मरहिमउ जिउ सिवपुरि पत्तू ।
णिक्कलु देउ निरिणदि वुत्तू ॥ समाधि ॥42॥ जीवहं देवत्तणु जाणिज्जइ।
सवणत्तउ सो देउ गुणिज्जइ । समाधि ॥43॥ यह भाण जिणु पुब्वि भावइ।
जो जिउ भावइ सो सिवसुहु पावइ ॥समाधि ॥44॥ इणि पयार भारण (मावरण ?) भाविज्जइ ।
दुक्खख कम्मक्खउ किन्नइ ॥ समाधि ॥451 खरिण खणि झाइयइ गमो प्ररहन्तारणं ।
जिउ मेगे पावहु रिणवारणं ॥ समाधि 146॥ चारित्तसेणु मुणि समाधि पढंतउ ।
भवियह कम्मुकलं कुडंतउ ॥ समाधि ॥471 मनि सम्माधि सुमरि नय विसु नासह ।
जिम परमसरि पाउ पणासइ ॥ समाधि ॥481 सोहण सो दिवसु समाधि मरीजइ ।
नामणमरणहं पारिणउ विज्जइ ॥ समाधि ॥49॥ प्राइसइ सम्माधी जो अणुर्विण झावइ ।
सो अबरामर सिबसुहु पावद ॥ सम्माषी निणदेवहं विट्ठी। जो करई सो सम्माइट्ठी ॥500
इति सम्माषी समाप्तः

Page Navigation
1 ... 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150