Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 134
________________ 128 जनविद्या अइसउ आणि जिय गिठ्ठरु ण चविज्जइ । दुखु कलेसु ण केण सहिज्जइ ॥ समाधि ॥24॥ साधु वेडुलउ सुणु जीव मरस । अप्पउ रणारणसरोवरि रिणम्मलि पेसू ॥ समाधि ॥25॥ मणवचकाएण जीवदय किज्जइ । दुक्खु किलेस जलंजलि दिज्जइ ।। समाधि ।।26॥ मीठउ वोलिज्जइ निठुरु ण चविज्जइ । ते ण जीव सुह दुक्खु उप्पज्जइ ।। समाधि ॥27॥ अइसउ जाणि जिय परत्तति ण किज्जइ । जिणवरु रामिउ हियइ धरिज्जइ ॥ समाधि ।।28। जेतउ गेहु लड़ा तेत्तउ जिय दुक्खु । ' णेहु चयंतहं लाभइ मोक्ख ॥ समाधि ।।29॥ पाणी भरिउ सर विरिण विरिण छिज्जइ । 'तिम तिम पाउ तुहारी झीजइ । समाधि ॥30॥ एइन्दियचिदियपत्तउ। जामण अप्पा-प्रप्पु मुणंतउ ।समाधि ॥31॥ अइसउ जाणि जिया लहु अप्पा झाहिं । सासय सुक्ल वि यविचलु पावहिं ॥ समाधि ॥32॥ सासउ रयणत्तउ जगि णिम्मलु । जो भावइ सो छिन्नड कलिमलु । समाधि ॥33॥ सणु गाणु चरणु जो जागई। ते तिणि वि अप्प मणि माहिं ॥ समाधि ॥34॥ जो अप्पहं सबहणु सुरिणम्मलु । सो सदसण तुहुं भावहिं अखिवलु ॥ समाधि ॥35॥ जो अप्पा सुट्ट विजाणिज्जइ । सो पिछय जिय पाणु मुरिणज्जइ ।। समाधि ॥36॥ --- जो पुण पुण अप्पा थिर किज्जइ । सो चारित्त मणहं भाविज्जा ।। समाधि ॥37॥

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