Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनविद्या
जइ परजंतउ मण वारिज्झइ ।
तो अप्पा यह थिरु धारिज्जइ ।। समाधि ।।10॥ जय अप्पा वहु पर धारिज्जइ ।
तो परजंतउ मण वारिज्जइ । समाधि ॥1.1।। पंचविद्धंदिय छट्ठउ मणु वारी।
अप्पउ भिण्णउ जाणहि णारणी ।। समाधि ॥12॥
जो अप्पा सुद्ध विपरियाणई।
सो इंदिय मण हेउ वियाणइं॥ समाधि ॥13॥ जो इंदिय मणु हेउ वियारणइं।
सो परमप्पा सुद्ध परियाणइं ॥ समाधि ॥14॥ जीवाजीवहं भेउ मुरिणज्जइ।
जय तो कम्मक्खउ लहु किज्जइ ॥ समाधि ॥15॥
जीव न जाणि तुहु अप्पणउ सरोरु।
__अप्पउ जाणहि णाणगहीर ॥ समाधि ।।16।। अइसउ जाणि जिया जिउ एक्कु समिळू ।
दंसरगणाणचरित्तसमिळू ॥ समाधि ॥17॥ अइसउ जाणि जिया वेदत्य विभिन्ना ।
पुग्गल कम्म वि अप्पउ भिण्णा ॥समाधि ॥18॥ जोवणु धणिय घणु परियणु णासइ ।
जीवही धंमु सरीसउ होसइं॥ समाधि ॥19॥ जो जीउविजीवहो गुणु जाणइं।
सो धंमु वि जिणवर वर वाणइं । समाधि ॥20॥ धण्णु सुवष्णु धणु पिय पुत्त कलत्तू ।
सरसउ कोई न जाइ मरंतू ॥ समाधि ॥21॥ गालिहिं गालुडी पुणु याहिं य उर ।
पुष्व रिणबद्धउ लखइ साकु ॥ समाधि ॥22॥ - जो पुणु खम करइ तसु पाउ परणासइ ।
सोक्ख पिरन्तर सो नरु पावेसइ ॥ समाधि ॥23॥
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