________________
138
जैन विद्या
28. डॉ. गंगाधर भट्ट, रीडर संस्कृत विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
"महाकवि पुष्पदन्त की रचनाओं से सम्बन्धित सामग्री इस अंक में प्रकाशित कर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न किया गया है । विशेषतः जसहरचरिउ व णायकुमारचरिउ जैसी अनुपम कृतियों का विभिन्न दृष्टियों से अध्ययन कर इस अंक के गौरव को और भी अधिक उत्कर्ष दिया गया है । संस्थान ने इस पावन कृत्य को करके प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति के विकास में अपूर्व योगदान किया है जिससे ज्ञान के प्रसार के साथ-साथ एक अपूर्व चेतना भी प्रदान
की है।" 29. डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, एम. ए., पीएच. डी., डी. लिट्., विद्यावारिधि
साहित्यालंकार, निदेशक, जैन शोष प्रकादमी, अलीगढ़-"जैनविद्या पहली और अकेली षद्मासिकी है जिसके द्वारा अपभ्रंश की सम्पदा का प्राकलन, मूल्यांकन, अध्ययन अभिव्यक्त होता है । यह वस्तुतः बहुत बड़ी बात है। जनविद्या के सातत्य प्रकाशन से विद्या-जगत् में नए मान-प्रतिमान स्थिर होंगे। भारतीय साहित्य और संस्कृति का समुन्नत स्वरूप मनीषियों के समक्ष होगा । इस
बहुनीय प्रकाशन, सम्पादन के लिए कृपया मेरी बहुतशः बधाइयां स्वीकार कीजिये ।" 30. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ-शोधपत्रिका "जनविद्या" के जो तीन अंक प्रकाशित
हुए हैं प्रत्युत्तम हैं, स्थायी महत्त्व के हैं। शोधछात्रों एवं विशेष अध्येताओं के लिए
बड़े उपयोगी होंगे। सभी लेख उच्चस्तरीय हैं, बधाई स्वीकार करें।" 31... पं. बालचन्द शास्त्री, हैदराबाद-"पत्रिका में सब ही लेख उत्कृष्ट व पठनीय हैं ।
इसमें णायकुमारचरिउ व जसहरचंरिउ के विषयों पर सर्वांगीण प्रकाश डाला गया , है। पत्रिका की साज-सज्जा भी सुरुचिपूर्ण है। अपभ्रंश साहित्य को प्रकाश में लाने के लिए जो आपकी इस पत्रिका द्वारा योजना
है वह स्तुत्य है।" 32. श्री उदयचन्द्र जैन, सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी-"वास्तव में दो अंकों में पुष्पदन्त के
व्यक्तित्व और कृतित्व के सभी पहलुमों की अच्छी जानकारी मिल जाती है । इतनी उत्तम सामग्री सुलभ कराने के लिए पत्रिका के सम्पादक, प्रकाशक तथा लेखक
सभी हार्दिक बधाई के पात्र हैं।" 33. पं. बंशीधर शास्त्री, बीना-"जैनविद्या संस्थान की चालू योजना सांस्कृतिक दृष्टि
से महत्त्वपूर्ण है, प्रयास स्तुत्य है।" 34. म. विनयसागर, संयुक्त सचिव राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर-"दोनों
अंकों में संकलित सामग्री श्रेष्ठ एवं सुरुचिपूर्ण है । महाकवि के कला और भावपक्ष को उजागर/सुस्पष्ट करने में सुविज्ञों ने विविध प्रायामों/दृष्टिकोणों के माध्यम से जो सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है, वह शोध छात्रों के लिए दीपस्तम्भ के समान सिद्ध होगा, निःसंदेह है।