Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 130
________________ मुरिण चारित्तसेणु समाधि अथ समाधि लिख्यते गणहरभासिय जियसंतिसमाधि, बंसणणाणचरित्रसमिति। समाधि जिणदेवहं विट्ठी, जो करइ सो समाइट्ठी ॥ समाधि ॥॥ राउरोसुजिणइं जो उवसमि थकइ । सो परमप्पा देखरण सक्कइ ॥ समाधि ॥2॥ जो परमप्पा देखण सक्कइ। राउरोसुजिण्णइं सो उपसमि थक्कह ॥ समाधि ॥3॥ जो पुणु भावलडउ अप्पारणउं जोवई। सो मिच्छत्तु महातरु खोवई ॥ समाधि ॥4॥ जो मिच्छत्त महातरु खोबइ। सो पुणु भावलग अप्पारणउ जोवह ॥ समधि ॥5॥ तजिय दुहु संसारहं पत्तउ। जामण अप्पा पप्पु मुणंतउ ॥ समाधि ॥6॥ अइसउ जाणि जिया अप्पउ झायइ । तो यनरामरुपउ लहु पावहि ॥ समाधि ॥7॥ प्राइसउ जाणि या जइ पिछउ कोजइ । खरिण खरिण पुणु अप्पा झाइज्जइ ॥ समाधि ॥8॥ अप्पा झायन्तहं जिरणवर इम भासइ । सासयसुक्खु मरणंतउ पयासइ ॥ समाधि ॥9॥

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