Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 129
________________ समाधि संस्थान की घोषित नीति के अनुसार पत्रिका के इस अंक में भी अपभ्रंश भाषा . की “समाधि" शीर्षक रचना सानुवाद प्रकाशित की जा रही है। जैन और जनेतर दोनों ही दर्शनों में समाधि के महत्त्व को स्वीकार किया गया है किन्तु उसकी परिभाषा भिन्न-भिन्न रूप में की गई है। "योग-शास्त्र" के कर्ता महर्षि पतंजलि ने "तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः" -ध्येयमात्र की प्रतीति और स्वरूप के शून्य की भांति हो जाने को समाधि कहा है अर्थात् वे आत्मा के परमतत्त्व (ईश्वर) में लीन हो जाने को समाधि मानते हैं । जैन किसी ऐसे ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते जो सृष्टि का कर्ताधर्ता एवं कर्मफलदाता है । उनके अनुसार तो आत्मा स्वयं पुरुषार्थ करके परमात्मा बन सकता है । जनदर्शन में "अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो" प्रात्मा का प्रात्मा द्वारा आत्मा में लीन होना ही सम्यक्चारित्र की पूर्ति माना है । (समणसुत्तं : 268) अतः प्रात्मा ही ध्येय है-"झायव्वो णिय अप्पा" (वही : 288) चारित्र, दर्शन एवं ज्ञानपूर्वक होता है । यह ही मुक्ति का मार्ग है-“सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" (मोक्षशास्त्र 1.1) इसीलिए रचनाकार ने भी "दसणणाणचरित्रसमिद्धि" दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समृद्धि को समाधि का स्वरूप कहा है। रचना आध्यात्मिक रस से प्रोत-प्रोत है । इसके रचनाकार हैं मुनि चारित्रसेन । यह संस्थान के पाण्डुलिपि विभाग के एक प्राचीन गुटके में संगृहीत है जिसमें लिपिकार का नाम अथवा लिपिकाल लिखा हुआ नहीं है। रचनाकार ने भी रचना में स्वयं का कोई परिचय नहीं दिया है और न रचनास्थान, रचनाकाल आदि का ही कोई उल्लेख किया है । डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच ने अपने "अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ" शीर्षक निबन्ध में प्रस्तुत रचना का पंचायती दि. जैन मन्दिर दिल्ली के दो गुटकों-91 तथा 94 में लिपिबद्ध होना बताया है किन्तु उनमें भी इन बातों का कोई उल्लेख हो ऐसा ज्ञात नहीं होता क्योंकि डॉ. शास्त्री का निबन्ध इस संबंध में मौन है । जैनधर्म का इतिहास : पं. परमानंदशास्त्री, तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा : डॉ. नेमीचंद ज्योतिषाचार्य, भट्टारक सम्प्रदाय : जोहरापुरकर, अपभ्रंश साहित्य : डॉ. कोछड़, अपभ्रंश भाषा और साहित्य : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन (इन्दोर) आदि पुस्तकें एवं ग्रंथ सूची, पांच भाग : साहित्यशोध विभाग श्रीमहावीरजी, नागौर शास्त्रभण्डार की सूची : डॉ. प्रेमचन्द प्रादि पुस्तकें अथवा ग्रंथ-सूचियां भी इस सम्बन्ध में हमारी कोई सहायता नहीं करतीं । मुद्रित ग्रंथों की किसी सूची अथवा सूचीपत्र में भी इस रचना का नाम देखने में नहीं पाया अतः रचना अप्रकाशित ही ज्ञात होती है । रचना के अनुवादक हैं संस्थान में कार्यरत सुप्रसिद्ध विद्वान् पं. भंवरलाल पोल्याका जैनदर्शनाचार्य, सा. शास्त्री । अनुवाद की भाषा सरल और सुबोध है । प्राशा है हमारे पूर्वप्रकाशनों को भांति ही इसका भी विद्वत्समाज में स्वागत होगा । (प्रो.) प्रवीणचन्द्र जैन सम्पादक

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