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पुराण-सूक्तिकोश
[साहित्य मनीषियों ने सूक्ति को साहित्य की मुक्तक-काव्य-विधा के अन्तर्गत गर्मित किया है, कारण कि यह मुक्तक काव्य दोहा प्रादि की भांति ही पूर्णरूप से स्वतन्त्र होती है, किसी पूर्वापर काव्यांश से इसका सम्बद्ध होना आवश्यक नहीं है ।
सूक्ति की भाषा चमत्कारपूर्ण होती है । वह श्रोता अथवा पाठक के मानस पर सीधी चोट करने-उसे पूर्णरूप से प्रभावित करने का सामर्थ्य रखती है । श्रोता अथवा पाठक काव्यमर्मज्ञ चाहे न हो किन्तु सूक्ति के शब्द सुनकर भावविभोर अवश्य हो उठता है, उसे ऐसा अनुभव होता है मानो किसी ने उसके कानों में मधुर-स्स की धारा प्रवाहित कर दी हो ।
सूक्ति के भावों को, उसके कथ्य को उसमें प्रयुक्त शब्दों का सीधा-सादा अर्थ करके नहीं समझा जा सकता । उसके लिए अभिधा का परित्याग कर व्यंजना का सहारा लेना पड़ता है । ऐसा करके ही सूक्ति के यथार्थ को हृदयंगम किया जा सकता है ।
सच्चा साहित्य वह होता है जो हित, मित एवं प्रिय हो । साहित्य की यह परिभाषा सूक्ति पर पूर्णरूप से घटित होती है । वह सर्वहितकारी होने से कालिक सत्य का प्रतिपादन करती है । ऐसी सूक्ति हो ही नहीं सकती जो किसी के लिए अहितकारी हो । कर्णप्रिय तो वह होती ही है किन्तु सबसे बड़ी विशेषता जो उसमें होती है वह है उसका मिताक्षरी होना । सूक्तिकार कम से कम शब्दों का प्रयोग करके अधिक से अधिक जो कहना चाहता है कह देता है । वास्तव में "गागर में सागर" वाली उक्ति पूर्णरूप से सूक्ति पर घटित होती है।
.. पुराण हमारे साहित्य की प्रमूल्य धरोहर हैं । जैनपुराणकारों ने जितने भी साहित्य : का निर्माण किया है वह सब जनकल्याण की पवित्र भावना से प्रोतप्रोत होकर ही किया है प्रतः यह स्वाभाविक है कि उनमें इस प्रकार की सूक्तियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हो। सूक्तियों की उपयोगिता को दृष्टिगत रखते. हुए संस्थान ने पुराणों में प्रयुक्त सूक्तियों का एक संग्रह प्रकाशित करने का निश्चय किया है । एतदर्थ प्रयोग के रूप में उसने संस्कृत के इन पांच प्रमुख जन पुराणों का चयन किया है-1. महापुराण 2. हरिवंशपुराण 3. पाण्डवपुराण 4. पद्मपुराण और 5. वर्धमान पुराण ।
इस संग्रह का कुछ अंश जैनविद्या पत्रिका में प्रकाशित किया जा रहा है जिससे कि विद्वान् पाठकों की इस सम्बन्ध में सम्मति ज्ञात की जा सके।
(प्रो.) प्रवीणचन्द्र जैन
सम्पादक ] :