Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 103
________________ जैनविदा 97 धनपाल अपने युग की सामाजिक विकृतियों से लोक-जीवन को मुक्ति दिलाने के लिए जो कथारथ चलाता है, उसकी दिशा बहुत स्पष्ट है । वह अपने काव्य को सामान्य जन की श्रुतपंचमी बना देता है जो एक व्रत का रूप लेती है । यह व्रत क्या है ? इस कथा का बार-बार श्रवण और स्मरण अर्थात् इस कथा के माध्यम से बार-बार इस तथ्य को ध्यान में लाना कि यह संसार दुराचार-पोषक कुप्रवृत्तियों से भरा हुमा है और उनसे जीवन को बचाने के लिए अपने मन को शुद्ध रखने की अनवरत साधना करना है । कोई भी धर्म इन मानवीय गुणों की पोषक साधना के बिना अपूर्ण है । धनपाल ने जैनधर्म को अपनी इस रष्टि का प्रमुखतः प्राधार बनाया है । यद्यपि धनपाल का युग पराधीनता का था, तथापि समाज में जन-भावना का प्रादर करने की प्रवृत्ति थी। नगरसेठ भी जन-भावना का तिरस्कार करने की सामर्थ्य नहीं रखता था किन्तु धनपाल ने जन-भावना के समादर की स्थिति विस्तार से या अनेक अनुकूल संदों में नहीं दिखाई । इससे प्रतीत होता है कि यह भावना राजतन्त्र से प्रातंकित थी। "भविसयत्तकहा" में तत्कालीन समाज के विभिन्न रूढ़-विश्वास भी पर्याप्त मात्रा में चित्रित हुए हैं। इन विश्वासों में कुछ ऐसे हैं जो धार्मिक मान्यताओं से प्रसूत हैं और कुछ विश्वासों के पीछे परम्परागत स्वीकृति काम कर रही है । उदाहरणतः कर्म-सिद्धान्त और उसके आधार पर भाग्य-विश्वास धार्मिक विचारणा का प्रतिफल है, जबकि स्वप्न-विश्वास, साधु-संतों के शुभाशीष से सन्तान प्राप्ति प्रादि की धारणा परम्परागत स्वीकृति रखती है । . इस प्रकार हम देखते हैं कि धनपाल कृत "भविसयत्तकहा" केवल एक लकीर पीटने वाली कथा नहीं है, इसमें वर्तमान जीवन को रस देनेवाले अतीत का समाज भी एक विशेष दृष्टि से चित्रित मोर सम्बोधित है । अतः यह काव्य केवल धार्मिक कथा के रूप में पढ़ने का ही विषय नहीं है अपितु अपने सामयिक सामाजिक संदों को भी जीवनोपयोगी बनाने का एक श्रेष्ठ साधन है । धनपाल की भविष्य भेदी दृष्टि का प्राधुनिक मानव समाज के लिए अत्यधिक उपयोग है । प्रावश्यकता इस बात की है कि हम धार्मिक कथाओं के अन्तनिहित मन्तव्यों को समझे और युगानुकूल उनकी व्याख्याएँ करके सामाजिक सदाचार की भूमिका प्रशस्त करें।

Loading...

Page Navigation
1 ... 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150