Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 105
________________ भविसयत्तकहा में जीवन का प्रतिबिम्ब - डॉ. गजानन नरसिंह साठे साहित्य जीवन का प्रतिबिम्ब कहाता है । उसका विधाता यदि अपने श्राप के प्रति ईमानदार हो और उसके फलस्वरूप जीवन की अपने द्वारा उपार्जित सचाइयों की अभिव्यक्ति अपनी विरचित सृष्टि में करना चाहता हो तो वह अपने चारों ओर की देशकाल जन स्थिति के प्रति अनासक्त, प्रलिप्त नहीं रह सकता । वह अपनी सृष्टि के लिए पात्रों का, घटना चक्र का चयन सुदूर अतीत से करे अथवा नितान्त कल्पना - लोक से करे, तो भी सच्चे साहित्यकार की कृति उसके अपने परिवेश से अनुप्राणित होती है । फिर, जन-मानस को प्रबोधित करने हेतु कथा काव्य की रचना करनेवाला धनपाल जैसा कवि इसका अपवाद नहीं हो सकता । धनपाल के विषय में जो अल्प-सी परन्तु प्रसन्दिग्ध जानकारी प्राप्त है उसके श्राधार पर कहा जा सकता है कि वे वैश्य कुलोत्पन्न दिगम्बर जैन थे । वे विद्यानों और कलाओं की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के कृपा पात्र थे मानो उसके पुत्र ही थे । उन्होंने "भविसयत्तकहा" के समापन में कहा है धरणसिरिवेविसुए विरइउ सरसइसम्भविरण | 22.9.10 जननी धनश्री से जनमे पुत्र धनपाल की काव्य-कला के क्षेत्र की माता थी देवी सरस्वती । उन्हें ऐसी माता सरस्वती देवी से बहुत से महान् वरों की उपलब्धि हुई

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