Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 107
________________ जैनविद्या 101 जान पड़ती हैं। भविष्यदत्त, उसका पिता धनपति, सौतेली माता सरूपा और उसका सौतेला भाई बन्धुदत्त, बन्धुदत्त के सहयात्री, ये सब इसी जगत् के हड्डी-मांस के जीवित लोग प्रतीत होते हैं । हाँ, भविष्यानुरूपा सम्बन्धी शुरू की घटनाएं कुछ अद्भुत सी जान पड़ती हैं परन्तु उसका शेष जीवनचरित, आचार-व्यवहार हमारी किसी जानी-पहचानी स्त्री का सा लगता है । बन्धुदत्त द्वारा अपहृत होकर जब वह गजपुर में उसके घर में रहने को विवश हुई तो किस प्रकार असहाय अवस्था में उसे रहना पड़ा, उसमें वह कैसे समय काट रही थी, यह सब बिल्कुल स्वाभाविक लगता है । युवा नारी के प्रति मनचले युवक का व्यवहार कसा कठोर होता है, वह उसे भोग्या वस्तु मानकर उससे कैसे पेश आता है, इसका चित्रण कवि ने बड़े कौशल से किया है। आज बीसवीं शताब्दी में भी नारी को भेड़-बकरी से अधिक न माननेवाले युवक हैं तो सुदूर अतीत में वह कैसी दयनीय रही होगी, इसकी झलक कवि ने इसमें दिखायी है । बन्धुदत्त के अशिष्ट व्यवहार के संकेत तीसरी सन्धि में मिलते हैं । अधिक लाड़-प्यार का यह परिणाम है। नगर में भ्रमण करते हुए वह "दुण्णय (दुर्नय, अनीति-अन्यायपूर्ण बात)" करता है, वह "जोव्वण वियार-निब्भरभरिउ" होकर शृंगार-सम्बन्धी बातों में "अच्चुब्भड (प्रत्युद्भट)" हो गया है । अमीरों के मनचले युवा पुत्रों का व्यवहार आज भी इससे भिन्न नहीं है। जब बन्धुदत्त विदेश की यात्रा के लिए तैयार हुआ तो उसके पिता धनपति ने उसे जो उपदेश दिया तथा माता कमलश्री ने अपने पुत्र भविष्यदत्त को जो शिक्षा दी, उसमें जीवन की कटु सचाइयों की ओर स्पष्ट संकेत है (सन्धि 3) । इस प्रकार की शिक्षा देनेवाले माता-पिता आज भी पाये जाते हैं। कवि ने नारी-जीवन की कतिपय कटु सचाइयों पर प्रकाश डाला है भविष्यदत्त की माता कमलश्री के जीवन-चित्रण के रूप में। बिना किसी उसके अपराध के उसके प्रति पति का प्रेम आहिस्ता-आहिस्ता क्षय को प्राप्त होता है, पति धनपति के मन में न जाने उसके प्रति कसा सन्देह है। पितृ-गृह में उसे दिन गुजारने पड़ते हैं । उसके पिता हरिबल का मन भी क्षणभर संशयाकुल बनता है । कैसा है यह अबला जीवन ! गनीमत इसी में है कि पितृगृह से उसे भगाया नहीं जाता, उसका पुत्र भविष्यदत्त महान् बनता है और अन्त में धनपति ग्लानि और पश्चात्ताप अनुभव करते हुए उससे क्षमायाचना करता है, उसके पांव पकड़ता है और अपने घर ले जाता है (सन्धि 12)। इसमें मौलिक मामलों में कुछ क्षतिपूर्ति तो हो गयी फिर भी कमलश्री को जो व्यथा सहन करनी पड़ी उसे कैसे भुलाया जा सकता है ? कमश्री-सी अनेक उपेक्षिताएं चारों ओर दिखायी देती हैं । हां, अच्छा होगा, यदि उनमें से हर एक उपेक्षिता कमलश्री की भांति पुनः सुख-शान्ति को प्राप्त हो जाए। अब न्याय-व्यवस्था का चित्र देखिये-जपुर के राजा हैं भूपाल जो विशुद्धवंशोत्पन्न हैं, बहुत लोक-प्रिय हैं, जय-लक्ष्मी मराली के राजमराल हैं-जणवल्लहचरिउ

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