Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 96
________________ 90 जैनविद्या शासन-व्यवस्था से जुड़े अधिकारियों व कर्मचारियों अथवा राजा, मंत्री प्रादि को उपहार द्वारा सम्मानित करता रहता है ताकि धनोपार्जन में कोई व्यवधान न पा सके । अपने दोनों पुत्र भविष्यदत्त और बंधुदत्त को व्यापार के लिए बाहर भेजते समय धनपति ने उक्त बातें उन्हें सिखाई हैं (3:21)। राज्य सेवा, प्रशासन आदि की तरह व्यवसाय की सफलता में भी 'स्वभाव' की बड़ी भूमिका रहती है । यदि व्यवसाय की प्रवृत्ति के अनुकूल व्यक्ति अपना स्वभाव नहीं बना सका तो सफलता हस्तगत नहीं कर सकेगा । व्यवसायार्थ कनकद्वीप जाने के लिए उद्यत बंधुदत्त को धनपाल सेठ वणिक् का व्यवहार बतलाता है । उसके अनुसार व्यवसायी को अवसरानुकूल थोड़ा बोलना और रहस्यमय रहना चाहिये । पराये काम की चिन्ता न करते हुए भी अपने मतलब में सर्वथा दत्तचित्त रहना चाहिये । कुशल व्यवसायी हर तरह से धन बढ़ाने की चेष्टा करता रहता है । अपने पास की व्यापारिक सामग्री की वह प्रशंसा करता है। किसी को धोखा देता है तो हाथ के इशारे से, बड़ी सूक्ष्म चतुराई से । धनपाल द्वारा उल्लिखित कुशल व्यवसायी का यह स्वभाव आज भी उतना ही व्यवहार्य है जितना पहले रहा होगा सुहियहि हियउ रणाहिं अप्पिव्वउ, परिमिउं थोउ थोउ प्पिव्वउ । प्रत्य विढप्पइ विविहपयारिहिं, वंधिवि करसन्नासंचारिहि । अप्पुणु पक्खे भंड सलहिव्वउ, अण्णहो चित्तु विचित्तु लहेव्वहु । अप्पणु अंगु णाहि दरिसिव्वउ, अण्णहो तरण परामरिसिव्वउ । परकज्ज सुणंतुवि गउ सुरणई अप्पण कज्जहो गउ चलइ । ण कलावइ केणवि रिणयचरिउ, परहो अंगि पइसिवि कलइ । 3.6. १. धन कमाने को अधिक महत्त्व देते हुए तथा व्यवसायी की सफलता के लिए उसे व्यवहार-पद्धति सिखलाते हुए भी धनपाल उसी धन को श्रेष्ठ मानते हैं जिसके कमाने से धर्म का क्षय न हो तं षण जं अविरणासियधम्में, लन्भइ पुवक्कियसुहकम्में। 3.19.2 प्राचारनीति वैयक्तिक सदाचार की उपादेयता व्यापक तौर पर सामाजिक हित की दृष्टि से ही है। कमलश्री और भविष्यदत्त को नियमित जिन-पूजा और व्रत-विधान में संलग्न दिखलाते हुए धनपाल ने धर्मभाव में रुचि रखने की प्रेरणा दी है। 'भविसयत्तकहा' में प्रात्मसंयम, प्रात्म-विश्वास, धैर्य, शंकाहीनता और मिष्टभाषण प्रादि नीतितत्त्वों को अपनाने के उपदेश मिलते हैं। यौवन के बारे में धनपाल की धारणा है कि यह अंधा होता है। इस अवस्था में करने योग्य और न करने योग्य कार्यों का विवेक नहीं रहता। युवकों के मुग्ध नेत्र युवतियों के मुख-दर्शन-रस के लोभी बने रहते हैं। ऐसी अवस्था में प्रात्मसंयम अपेक्षित

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