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अनविद्या
एक्काब्वमहिलासविचिस्ता, को जारणई दाइयहं परित्तइ।
3.11.3 मनुष्य को कितना भी कष्ट मिले किन्तु वह अपने परिजनों के साथ धोखा नकरे, अन्यथा उसे लोक-परलोक में सर्वत्र अपयश का पात्र बनना होगा। भविष्यदत्त के धन पौर स्त्री का अपहरण करके उसे धोखा देनेवाले बन्धुदत्त को अन्य श्रेष्ठिपुत्र यही समझाते हैं
उप्पण्ण जइ वि परिहउ गहीर, घाइज्जह तो वि ए नियसरी । इहरत्तिपरत्तिवि पहियबोसु, विसहिन्वउ कह दुब्वयघोसु।
3.25.5-6 मर्थनीति
- व्यवसाय मौर वणिक्वर्ग से सम्बन्ध रखने के कारण 'भविसयत्तकहा' में 'जीविका' एवं अर्थ-विषयक सिद्धान्त बेजोड़ हैं, 'भविसयत्तकहा' के मध्ययन से युवकों में उद्यम करने की प्रवृत्ति जागृत होती है तथा देश-विदेश में सफलतापूर्वक व्यवसाय चलाने की रीति-नीति की शिक्षा मिलती है । कमाने योग्य उम्र प्राप्त करते ही युवकों को पराश्रित होने की अपेक्षा स्वावलम्बी बनने की चेष्टा करनी चाहिये । बन्धुदत्त पिता के कमाये हुए धन को भोगते रहने में यश और कीति नहीं मानता
पियरी वितु प्रत्य विलसंतह, कवरण कित्ति जसु कवण जियंतह ।
3.8.6 युवावस्था प्राप्त होने पर भी व्यवसाय में रुचि न लेनेवाले वणिकपुत्र को अपने समवयस्कों और समाज में लज्जित होना पड़ता है
जइ ववसाइ बाउ एउ विजइ, तो वायरहं मज्झि लज्जिज्जइ । . . 3.126
विभिन्न सहयोगियों के साथ किसी बड़े व्यापार को चलाना धनपाल बुरा नहीं मानते । उनकी दृष्टि में मनुष्य का अच्छा काम सहायक के अभाव में सिद्ध नहीं होता। बन्धुदत्त के साथ व्यापार करने की इच्छा रखनेवाले श्रेष्ठिपुत्र उससे कहते हैं
सुदृढ़ वि परहं परिव्यिकायह, सिम्झइ किपि रहिं असहायहं ॥
3.14.7
कुशल व्यवसायी देश और विदेश में दो बातों का बड़ा ध्यान रखता है । एक तो वह हर स्थिति में चोर और वंचकों से अपने धन की हर क्षण सुरक्षा रखता है । दूसरे,