Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 86
________________ 80 जनविद्या अपभ्रंश साहित्य के एक उत्साही कवि धनपाल भी जागरण के इस यज्ञ में पीछे नहीं रहे। उन्होंने अपनी लेखनी से भविसयत्तकहा का प्रणयन मूलतः इसी उद्देश्य से किया। लोकविश्रुत कथानक और भविष्यदत्त की कथा का चयन कर धनपाल ने मूल उद्देश्य निर्वहण और कविकर्म कौशल पर बल दिया है। वस्तुतः कवि अपनी सफलता के लिए सद्धमंसुरभित उद्देश्य को जीते-जागते, तड़पते-फड़कते, रोते-बिलखते, हंसतेकिलकते तथा खट्टे-मीठे शब्द-प्रवाह में बहाने का उद्यम करे, (मात्र कथानक के ख्यात होने की व्यर्थ चिन्ता न करे) क्योंकि अनुभूतिजन्य जीवित शब्दप्रवाह भी कवि की मौलिक सूझबूझ का ही परिणाम होता है । हम धनपाल के कथानायक भविष्यदत्त को ही लें तो पायेंगे कि वह अपनी धर्म-शक्ति को जगाने का प्रयास करता है। जिनालय का भव्य वातावरण हो या संकट का काल अथवा मुनिश्री का समागम वह भक्तिरस में तल्लीन हो जाता है। अपनी ही धरा पर धर्मधारा बहाना उसे इष्ट है तभी तो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में वह धर्म को नहीं भूलता तथा अन्ततोगत्वा अपने अभियान में अधिक गतिशील हो जाता है अर्थात् मुनि-दीक्षा ले तपश्चरण में प्रवृत्त हो जाता है जो सुसुप्त शक्तियों के जागरणार्थ प्रति प्रावश्यक है। धनपाले के अनुसार प्रागे ही सही अर्थात् चौथे भव में वह अपने को पूर्णतः जगा लेता है, उसकी सारी शक्तियां जागृत अर्थात् अभिव्यक्त हो जाती हैं और वह मात्मा से परमात्मा बन जाता है मानो आत्मा का धरास्थानीय धर्म अपनी ही धारा से प्राप्लावित हो उठा है और अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य आदि के प्रकटीकरण से परमात्मपने को सार्थक बता रहा है । इसके अलावा कमलश्री, भविष्यानुरूपा के जीवन का तथा धनवई, हरिदत्त एवं रानी प्रियसुन्दरी के त्यागमूलक प्राचरण-विधान का रेखा-चित्र खींचकर कवि ने यह प्रमाणित कर दिया है कि उसने अपनी कृति को जागरण की मूलधारा से जोड़ा है। ..... यहाँ यह उल्लेख उचित ही होगा कि धनपाल ने अपने प्रबन्ध में कहीं भी धर्म की व्याख्या नहीं की और न ही मात्र उसका उपदेशात्मक विश्लेषण या प्रदर्शन ही किया । - इसका सीधा मतलब है कि उन्हें धर्म की कोरी व्याख्याओं में विश्वास नहीं था। वे चाहते थे कि लोग धर्म को मात्र पढ़े ही नहीं हृदयंगम भी करें, उसे अपने जीवन में लायें । इसका उपाय उन्होंने वैसे आदर्शों के पुरस्थापन में ही अधिक माना । जिस प्रकार किसी भी काव्य में साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का 'समावेश उनकी व्याख्या के बिना सहज संभव होता है उसी प्रकार धर्म की व्याख्या के बिना भी उसके प्रयोगाधृत मूल्यों का निर्वाह असंभव नहीं है। जब शृगार वीर, वीभत्स प्रादि रसों तथा रूपक, उपमादि अलंकारों के परिभाषात्मक विवेचन के पचड़े में पड़े बिना ही कवि उनकी सहज अनुभूति पाठक को करा देता है तो धनपाल ने धर्म के उपदेशात्मक -- विवेचन के पचड़े में पड़े बिना ही धर्म को सहज जीवनानुभूति से जोड़कर समझाने में

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