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जनविद्या
हा भाइ पडिउ दुम्बिसहु घाउ, अंधारिउ जगु अत्यामिउं ताउ । पसरिउ वामोहतमोहजालु प्रसरणु उत्तर पडिवन्नु कालु । पालिज्ज बिहिमि जरपरिगहुं सणेहु हउं एवहिं उवसंघरमि बेहु ।
कुलगोंदलि तासु वसिवि सणेहपरंपरई । अणुहूयई जाई ताइंमि हुई भयंकरई।
20.6 सुमित्रा का शोक भी 'व्याधि', 'ग्लानि', 'मोह', 'स्मृति', 'दैन्य', 'चिन्ता', 'विषाद', 'प्रात्मावमान' आदि भावलहरियों से सहवर्तित है
हा चंचल पड वगयसणेह कहु मिल्लिय हउ कंटइयवेह । घरगवइ विगु पत्तिए तं जि गेहु पिक्खइ पजलंतु वहंतु देह । निवइ अप्पाणउ काउं दोणु तउ करिवि न सक्कमि ह निहीणु। । सुप्पहधरणीधरपमुह कुम्बर न परन्ति अंस न नियंति अवर। . ता रोबइ तार सुतरियाउ नियवम्गहो नं प्रोसारियाउ। 22.3
_ निर्वेद और सजातीयभाव-'प्रोत्सुक्य', 'उत्साह', 'ति', 'मति', 'ग्लानि', 'दन्य' प्रादि संचारियों से सहवर्तित 'निर्वेद' का 'विबोध चित्र' तब मिलता है जब हमारा प्रमुख पात्र संसार-त्याग की भावना से उद्वेलित होता है
थिउ राउ परमकारणवियप्पु परिगलियविहवमाहप्पुरप्पु। .!
भाविवि परिणच्च चंचल विहोउ तकवरिण प्रोसरिउ सयलु लोउ। 21.1 क्योंकि
चम्मट्टि सरीरु निर्वाड जाइ मसारिण खउ । मह नियमगुहि तेरण जि लग्भइ परमपउ ।
20.9
तब उतावली केवल यह है और उपदेश भी यह है
संसारि प्रसारि जीउ प्रसासउ चलु विहउ । तं किज्जइ मित्त जं पाविज्जइ परमपउ ।
18.1
प्रतः सभी भाव-वीचियां प्रसन्न और प्रशस्त कक्षा की हैं, पर्याप्त वेगवान् अनुभूति भी और विचार भी। अनुभूति में प्रक्रिया है, तन्मयता है, अतः बदलाव के लिए प्रानंद और मुक्ति । प्रादर्श में बदलाव है, अतः प्रास्वाद से प्रास्वाद्य की प्रतिष्ठा । 'भविसयत्तकहा' का भी यही लक्ष्य है।