Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
View full book text
________________
70
तं वयणु सुणेविणु भविसयत्तु नियकुल विवायपरिहविरण तत्तु । प्रावेसवेस विष्फुरियनयणु जंपिउ सरोसु निड्डरियवयणु । कुलकित्तिविरणासणु मइलियसासणु कि बुल्लाविउ एहु खलु । निसारिवि घल्लुहु लइ गलथल्लहो पावउ नियदुव्वयरण फलु । ए वि मरिण सरोसु चित्तंगहो वयरंग थिउ विचित्तनो । अन्नुवि नियजरु पिरिंगबिउ हुवबहु जिह पलित्तनो सहमंडवि मई उल्लविड एम हउं परबलि भिडमि कयंतु जेम । हउं वइरिवरंगरण हिययसल्लु समरंगरिग हउं महलोहमल्लु ।
!
13.8,9
भय तथा सजातीयभाव - 'स्मृति', 'शंका', 'चिन्ता', 'ग्लानि', 'प्रावेग', 'त्रास', 'जुगुप्सा', 'विषाद,' 'दैन्य' आदि संचारियों से सहवर्तित एवं 'स्वरभंग', 'कंप', 'अश्रु' आदि सात्त्विकों से अनुभावित एक 'हुंकार चित्र' तब मिलता है जब हमारे प्रमुख पात्र की वाग्दत्ता प्रापबीती सुनाने का उपक्रम करती है -
तं निययकुडुंब सुमरिवि अंगई हल्लियई । हुआ गग्गिरवाय नयरगई श्रंसुजलोल्लियई । बहुप्रच्छ रियवयर संखुत्ति किउ हुंकारु पुणु वि वणिउत्त ।
फुति चवs मिगलोयरण हेट्ठामुहमुहकमलपलोयरग । प्रावइ सुरु इत्थु बलवंतउ सो परिभमहं नयद जगतउ । पट्टरिण ते सलु जणु मारिउ वल विट्टिवि समुद्दि संचारिउ । केरण वि कारणेरण खलदुट्ठि हउं परिहरिय तेरण पाविट्ठि ।
पुणु वि पुणु वि मं भीसिवि मिल्लिय, प्रच्छमि तेरा इत्थु इक्कल्लिय ।
सुंदर तु विखणु विमं थक्कहि, लहु मद्द लेहि जाहि जइ सक्कहि । 5.12, 13
'विभावन' भी कम संत्रासक नहीं है
जैन विद्या
सो निएवि जालोलिभयंकर प्रग्गिफुलिददतु सयसक्कर । विरसु मुक्कु हुंकार भयावणु कुरुडकयंतलीलवरिसावणु ।
तो घरि किउ लोयाचार जाम हुन कित्तिसेण निज्जीव ताम । जरिए छडिउ भत्तारसोड बोलग्गु ताहि घरसयलुलोउ । नउ रुग्रइ न कंबइ प्रचलबिट्ठि गउ सपरिवार धरमित्तु सिट्टि । जो धमित्तहो वयण इट्ठ श्रोसरिउ कलुणु कंविउ प्रणि ।
5.18
शोक तथा सजातीयभाव - 'करुण' का एक 'अनावलंबन चित्र' तब उपलब्ध होता है जब 'बज्जोयर' की मृत्यु पर कीर्तिसेना भावशून्य हो जाती है । 'व्याधि', 'ग्लानि', 'मोह', 'स्मृति', 'दैन्य', 'चिन्ता', 'विषाद' आदि भाववीचियां एक ही अधिष्ठान में अहमहमिका वृत्ति से एकत्र हैं

Page Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150