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तं वयणु सुणेविणु भविसयत्तु नियकुल विवायपरिहविरण तत्तु । प्रावेसवेस विष्फुरियनयणु जंपिउ सरोसु निड्डरियवयणु । कुलकित्तिविरणासणु मइलियसासणु कि बुल्लाविउ एहु खलु । निसारिवि घल्लुहु लइ गलथल्लहो पावउ नियदुव्वयरण फलु । ए वि मरिण सरोसु चित्तंगहो वयरंग थिउ विचित्तनो । अन्नुवि नियजरु पिरिंगबिउ हुवबहु जिह पलित्तनो सहमंडवि मई उल्लविड एम हउं परबलि भिडमि कयंतु जेम । हउं वइरिवरंगरण हिययसल्लु समरंगरिग हउं महलोहमल्लु ।
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13.8,9
भय तथा सजातीयभाव - 'स्मृति', 'शंका', 'चिन्ता', 'ग्लानि', 'प्रावेग', 'त्रास', 'जुगुप्सा', 'विषाद,' 'दैन्य' आदि संचारियों से सहवर्तित एवं 'स्वरभंग', 'कंप', 'अश्रु' आदि सात्त्विकों से अनुभावित एक 'हुंकार चित्र' तब मिलता है जब हमारे प्रमुख पात्र की वाग्दत्ता प्रापबीती सुनाने का उपक्रम करती है -
तं निययकुडुंब सुमरिवि अंगई हल्लियई । हुआ गग्गिरवाय नयरगई श्रंसुजलोल्लियई । बहुप्रच्छ रियवयर संखुत्ति किउ हुंकारु पुणु वि वणिउत्त ।
फुति चवs मिगलोयरण हेट्ठामुहमुहकमलपलोयरग । प्रावइ सुरु इत्थु बलवंतउ सो परिभमहं नयद जगतउ । पट्टरिण ते सलु जणु मारिउ वल विट्टिवि समुद्दि संचारिउ । केरण वि कारणेरण खलदुट्ठि हउं परिहरिय तेरण पाविट्ठि ।
पुणु वि पुणु वि मं भीसिवि मिल्लिय, प्रच्छमि तेरा इत्थु इक्कल्लिय ।
सुंदर तु विखणु विमं थक्कहि, लहु मद्द लेहि जाहि जइ सक्कहि । 5.12, 13
'विभावन' भी कम संत्रासक नहीं है
जैन विद्या
सो निएवि जालोलिभयंकर प्रग्गिफुलिददतु सयसक्कर । विरसु मुक्कु हुंकार भयावणु कुरुडकयंतलीलवरिसावणु ।
तो घरि किउ लोयाचार जाम हुन कित्तिसेण निज्जीव ताम । जरिए छडिउ भत्तारसोड बोलग्गु ताहि घरसयलुलोउ । नउ रुग्रइ न कंबइ प्रचलबिट्ठि गउ सपरिवार धरमित्तु सिट्टि । जो धमित्तहो वयण इट्ठ श्रोसरिउ कलुणु कंविउ प्रणि ।
5.18
शोक तथा सजातीयभाव - 'करुण' का एक 'अनावलंबन चित्र' तब उपलब्ध होता है जब 'बज्जोयर' की मृत्यु पर कीर्तिसेना भावशून्य हो जाती है । 'व्याधि', 'ग्लानि', 'मोह', 'स्मृति', 'दैन्य', 'चिन्ता', 'विषाद' आदि भाववीचियां एक ही अधिष्ठान में अहमहमिका वृत्ति से एकत्र हैं